Tuesday 19 February 2013

I wish I hadn't worked so hard !!!

We all are always exhorted by our employers,seniors and family members   to work very hard . Some are  obsessed  to 12-14 hours work each day of week. But is it really worth to burn midnight's oil or burn the candle of our life at both the ends ?

Perhaps not ! The proof of this has been given by a nurse ,who has counselled the dying persons in their last days. Bronnie Ware is an Australian nurse who spent several years working in palliative care, caring for patients in the  last  12  weeks  of  their  lives  and  recorded their observations in  a a book called The Top Five Regrets of the Dying.

And among the top regrets , from dying men in particular, is 'I wish I hadn't worked so hard'.

I hope that this will be  brought to the notice of all employers , who continue to disturb the work-life balance of their employees.   
 
And here are the top five regrets , common to dying men & women, as witnessed by  Nurse Bronnie Ware:

1. I wish I'd had the courage to live a life true to myself, not the life others expected of me.

"This was the most common regret of all. When people realise that their life is almost over and look back clearly on it, it is easy to see how many dreams have gone unfulfilled. Most people had not honoured even a half of their dreams and had to die knowing that it was due to choices they had made, or not made. Health brings a freedom very few realise, until they no longer have it."

2. I wish I hadn't worked so hard.

"This came from every male patient that I nursed. They missed their children's youth and their partner's companionship. Women also spoke of this regret, but as most were from an older generation, many of the female patients had not been breadwinners. All of the men I nursed deeply regretted spending so much of their lives on the treadmill of a work existence."

3. I wish I'd had the courage to express my feelings.

"Many people suppressed their feelings in order to keep peace with others. As a result, they settled for a mediocre existence and never became who they were truly capable of becoming. Many developed illnesses relating to the bitterness and resentment they carried as a result."

4. I wish I had stayed in touch with my friends.

"Often they would not truly realise the full benefits of old friends until their dying weeks and it was not always possible to track them down. Many had become so caught up in their own lives that they had let golden friendships slip by over the years. There were many deep regrets about not giving friendships the time and effort that they deserved. Everyone misses their friends when they are dying."

5. I wish that I had let myself be happier.

"This is a surprisingly common one. Many did not realise until the end that happiness is a choice. They had stayed stuck in old patterns and habits. The so-called 'comfort' of familiarity overflowed into their emotions, as well as their physical lives. Fear of change had them pretending to others, and to their selves, that they were content, when deep within, they longed to laugh properly and have silliness in their life again."

  ( With Inputs from Guardian.co.uk  Newspaper )

Tuesday 12 February 2013

Entrepreneurs are the happiest workers

Despite working longer hours and having less time off, business owners are 50 per cent more satisfied with their jobs than those who work for others, according to a new study.

While business owners spend nearly twice as much time as employees thinking of work when outside the office, they are also three times more likely to report satisfaction with their jobs, the study found.

The survey of 2,000 business owners and employees in the UK by AXA Business Insurance found that business owners reported that their biggest motivator for working hard was to learn and challenge themselves, whereas employees cited money as their key driver, BusinessNewsDaily reported.

However, owning a business also comes with a lot of extra stress, the survey suggested. Those who own businesses were more likely than employees to report a feeling of regular or constant pressure at work.

Whereas employees cited their bosses as the biggest cause of stress, business owners reported being stressed out most by customers.

Even though business owners were just as likely as employees to find time for family, they were far less likely to take more than three weeks of vacation a year.

But despite the added stresses reported by business owners, the survey suggested that working for oneself means greater happiness and satisfaction with life in general.

The study found business owners to be 50 per cent more contented and happy with their lives than their employees. 
 ( from Economic Times / 12 Feb 2013)
                      

Friday 1 February 2013

पैसे देकर सलाह क्योँ लें ?

भारत जैसे देश में जब बिन मांगे मुफ्त सलाह मिलती हो तो पैसे देकर सलाह लेना बेवकूफी ही माना जाएगा . आज से सौ साल पहले भारत में भोजन  बेचना अनैतिक माना जाता था और करीब बीस साल पहले तक पीने  का पानी लोग खरीद कर पिएंगे ऐसा सोचना भी मुश्किल था . लेकिन आज मध्यम वर्ग को अगर होटल वाला फ़िल्टर पानी भी दे रहा हो तब भी लोग बिसलरी बोतल की मांग करते हैं  क्योँकि लोग गंदा पानी पीकर बीमार पड़ने के बजाय 20 रुपये देना बेहतर है  जिससे स्वस्थ रहकर हजारोँ कमाए जा सकें।

   कहने का मतलब है कि हर समय और हर युग की समस्याएँ अलग तरह की होती हैं और उनके समाधान भी वैसे ही होते हैं। आज का युग विशेषज्ञता का युग है . सफल  लोग एक समस्या के  विशेषज्ञ बनकर अपना पूरा समय उसी की प्रैक्टिस में लगा देते हैं और कमाए हुए पैसे से अन्य विशेषज्ञोँ  की सेवा ले लेते हैं . इस तरह  प्रत्येक व्यक्ति को हरेक फील्ड में विशेषज्ञ सेवा उपलब्ध हो जाती है।

   जब हम पैसा देकर सलाह या सेवा लेते हैं तो सेवा प्रदान करने वाले पर क्वालिटी देने का दबाव होता है . उपभोक्ता संरक्षण क़ानून भी केवल  भुगतान  से प्राप्त  सेवा या  उत्पाद पर ही लागू होता है मुफ्त सेवा या उत्पाद पर नहीं।

  ऐसे में आज दो तरह के लोग भारतीय समाज में मिलते  हैं :  एक वे लोग ( ज्यादातर   पुरानी पीढ़ी से ) जो  अपने को सिर्फ उम्र या पद  बड़ा होने भर से ही  हर फील्ड का विशेषज्ञ मानते हैं और डॉक्टर की सलाह के लिए  भी फीस देना  बेकार मानते  हैं , और टीवी पर उपलब्ध  बाबा रामदेव की मुफ्त सलाह से ही डाइबिटीज और हार्ट अटैक का इलाज करते है।  दूसरा वर्ग नयी पीढ़ी के पढ़े लिखे मध्यम वर्ग से आता है , जो हर कार्य के लिए उपयुक्त सलाह क्वालिफाइड विशेषज्ञ से भुगतान करके प्राप्त करता है  ।

कहने की जरूरत नहीं है कि इनमें से कौन अधिक सफल है। भारत में कई शिक्षित लोग अपने को सिर्फ स्कूल व कालेज में पढ़े होने , उम्र ज्यादा होने या नौकरी बड़ी होने से अपने को सभी क्षेत्रोँ   का एक्सपर्ट मानते हैं जबकि वास्तविकता में  ऐसे लोग जिन्दगी की हर दौड़ में पिछड़ते चले जाते हैं । कुछ दिन पहले मैंने  इंटरनेट ब्लॉग पर भारतीय शिक्षा के बारे में एक 35 वर्षीय भारतीय इंजीनियर के विचार पढ़े जो कुछ इस तरह थे :

"  जब मैं अपने बच्चे को स्कूल में पहली बार भर्ती कराने गया तो मुझे अपनी खुद की शिक्षा का खयाल आया . मैंने पाया कि मेरी स्कूली शिक्षा में जितना समय व पैसा लगा उस हिसाब से उसका कोई फायदा मुझे नहीं मिला . उदाहरण के लिए मैंने  स्कूल के 14 सालोँ  में ( 12+ नर्सरी + केजी )  अंगरेजी सीखने में जो  समय दिया , उतना अंगरेजी ज्ञान  अन्य देशोँ  के लोग  स्नातक  के बाद सिर्फ 3 महीनोँ   का कोर्स करके  प्राप्त कर लेते हैं। जबकि इस तरह के अंगरेजी स्कूल शिक्षित पढ़े लिखे लोग पुलिस , क़ानून , स्वास्थ्य , इनकम टैक्स , इन्वेस्टमेंट के रोजाना काम आनेवाले सामान्य ज्ञान से पूरी तरह अनजान रहते हैं,  क्योँकि भारत के स्कूल और कालेज के सिलैबस में  यह सब है ही नहीं।

    लाखोँ रुपये खर्च करके इंजीनियरिंग पढने के बाद जब आप एक कंपनी ज्वाइन करते हैं तो कम्पनी फिर से एक साल की ट्रेनिंग उस काम की  देती है जो उसे शायद कभी करवाना पड़ सकता है . ट्रेनिंग के  बाद जब  ट्रेंड इंजीनियर बॉस को रिपोर्ट करता है तो बॉस कहता है जो कालेज और ट्रेनिंग में पढ़ा है उसे भूल जाओ और जो मैं कहता हूँ सिर्फ वह करो अन्यथा आप नौकरी नहीं कर पाओगे . और फिर जिन्दगी  भर वह अपने बड़े साहबोँ  व सहकर्मियोँ से 40 साल  तक  की नौकरी में अंग्रेजोँ  की बनायी बेसिर - पैर की 150 साल पुरानी  नौकरशाही की  प्रोसीजर  सीखता रहता है जिसे किसी कालेज या ट्रेनिंग प्रोग्राम में नहीं पढ़ाया जाता है। 

  
   कुल मिला कर हम स्कूल या कालेज में जो सीखते हैं , वह 10 % ही काम आता है जबकि इसमें हमारे करीब 18-20 वर्ष खर्च हो जाते हैं . स्कूल में सीखा 10% बाद में भी कम समय में सीखा जा सकता है।


 18 -20 साल गलत तरीके से पढ़ाई  करने  से और उसका रोज की जिन्दगी में कोई उपयोग न होने से एक और नुकसान कान्फीडेंस व  कामनसेंस समाप्त हो जाना  है और ऐसा व्यक्ति  सामान्य सी इनकम टैक्स  कैलकुलेशन या इन्वेस्टमेंट से जुड़ा निर्णय करने में भी अपने को असमर्थ पाता है।

 3 इडियट फिल्म ने इसी हकीकत को बड़े अच्छे तरीके से दिखाया है। भारत में 50 प्रतिशत से ज्यादा इंजीनियर , डाक्टर या वकालत डिग्री धारक अपनी मूल  शिक्षा से अलग हटकर काम कर रहे हैं या  एकाउंटिंग वालोँ  की तरह बिल पास या साइन कर रहे है। इन सभी व्यवसायोँ का असली काम का ठेका हम विदेशी कम्पनी को दे देते हैं। मैं अपने स्वयं के अनुभव से यह कह सकता हूँ कि सरकार व पब्लिक सेक्टर के 90 % इंजीनियरोँ  को सिर्फ बिल वेरीफाई करने के लिए ही रखा जाता है। और जो प्रोफेसनल अपने क्षेत्र में काम कर भी रहे हैं , उन्होंने अपने ज्ञान को नौकरी मिलने के बाद कभी अपडेट करने का सोचा ही नहीं , न ही कम्पनी या सरकार उनको बाध्य करती है  .  "

    और जब इतने तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग का यह हाल है तो बाकी का हाल क्या होगा ? आज आप डाक्टर के पास सामान्य से रोग के इलाज के लिए जाते हैं , वह आपको स्टेरॉयड वाली महंगी दवा लिख देता है और आप उसके तुरंत असर होने से खुश हो जाते हैं .फिर जब आपको किडनी की शिकायत होती है तो दूसरा डाक्टर आपसे पूछता है कि  आप स्टेरॉयड ड्रग तो नहीं ले रहे थे। तो उस दिन आप स्टेरॉयड ड्रग के बारे में ज्ञान प्राप्त करते हैं जब किडनी फेल हो चुकी होती है।



  "ओह माइ गॉड"  फिल्म में पढ़ा लिखा परेश रावल दूकान का बीमा करवाता है लेकिन उसे क्लेम नहीं मिलता है क्योँकि  वह टर्म्स - कंडीशंस  पढ़े बिना,  करोड़ोँ पढ़े लिखे भारतीयोँ   की तरह एजेंट की सलाह पर फ़ार्म पर ब्लैंक  साइन करता है।  


ऐसा नहीं है कि भारत में ही शिक्षा की यह समस्या है। दरअसल यह शिक्षा पद्धति तो हमने पश्चिमी देशोँ से आयात की है। तो यह समस्या उनके यहाँ ज्यादा है परन्तु उन्होंने उसका इलाज कंसल्टेंट या सलाहकार के रूप में  ढूढा है और सभी शिक्षित पश्चिमी देशोँ  के लोग जिन्दगी भर सलाहकारों की शरण में रहते हैं । भारत में हम उनकी शिक्षा पद्धति तो अपनाते हैं पर सलाहकारोँ की शरण लेने में हिचकिचाते हैं।      

मजे की बात यह है कि हर पेशेवर विशेषज्ञ बार बार अपने पेशे के लिए तो व्यवसायिक सलाह की वकालत  करता है पर वह खुद दूसरे  पेशेवर सलाहकार से सलाह लेना उचित नहीं समझता है । जैसे डाक्टर किसी सीए से सलाह लिए बिना निवेश करता रहता है, लेकिन अमेरिका में एक्सपर्ट की सलाह बाकी एक्सपर्ट भी लेते हैं ।

अत: लाखों का निवेश बीमा पालिसी , शेयर , प्रापर्टी , चिटफंड  आदि में लगाने से पहले अगर आप एक निवेश सलाहकार को तीन चार हजार फीस देकर उचित जानकारी ले लेंगे  तो आप का निवेश  सुरक्षित रहेगा . इसी तरह से ज्योतिष , स्वास्थ्य , टूरिज्म , कंप्यूटर लर्निंग , कैरियर प्लानिंग, कार खरीदना , बच्चों से सम्बंधित मुद्दों आदि पर आप अगर पेशेवर सलाह लें तो पूरी जिन्दगी में मुश्किल से आप के एक लाख  रुपये खर्च होंगे लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इससे आप भविष्य में करोडो की बचत ही नहीं करेंगे बल्कि आप की जिन्दगी में एक गुणवत्ता व सुख शान्ति का अनुभव भी पायेंगे। 

  पेशेवर सलाहकार आप की जिन्दगी के इंजन में इंजन आयल की भूमिका निभाता है . अब यह आप पर है कि आप अपने जिन्दगी के इंजन को बिना इंजन आयल के चलायें और उसे समय से पहले नष्ट कर दें या समय समय पर इंजन आयल जैसी पेशेवर सलाहकार की  सलाह  लेकर बिना शोर अपनी जिन्दगी के इंजन को 100 साल तक चलायें .      
  

 मुफ्त सलाह पर मेरा अनुभव तो यहाँ तक है कि भले ही   कोई डाक्टर , सीए , वकील या इंजीनियर आपका  दोस्त या रिश्तेदार हो , पैसा न देने की वजह से उसकी सलाह कैजुअल टाईप की ही रहती है और नुक्सान होने पर आप उसको कुछ कह भी नहीं सकते । 


आज के युग में सब के पास समय की कमी है और अच्छे एक्सपर्ट कम ही हैं  इसलिए मुफ्त या कम पैसे देने पर  आपको क्वालिटी वाली सलाह मिलेगी इसकी संभावना कम है फिर भी मुफ्त सलाह से कम पैसे वाली सलाह  फिर भी बेहतर है। मैं खुद अपने लिए जब सलाह लेनी होती है तो पहले गूगल जी की शरण में जाकर उस विषय की  बुनियादी जानकारी हासिल करता हूँ फिर उसका प्रयोग एक विशेषज्ञ को बाकायदा फीस देकर सलाह लेने में  करता  हूँ लेकिन मैं उस विशेषज्ञ की सलाह का भी अंधविश्वास नहीं करता हूँ और अपनी सभी  आशंकाओँ का समाधान करने के बाद ही उस पर अमल करता हूँ।

पुराने लोग यूं ही नहीं कह गए हैं कि  नीम हकीम खतरा- ए- जान . तो स्वयं की नीम हकीमी से स्वयं व अपने  परिवार की जान और माल को खतरे में डालना बंद करें और पेशेवर सलाहकार से सलाह लें और अपनी  समस्या को समूल हल करें . 


और आज के युग में तो आपको एक्सपर्ट को कहीं ढूढ़ने भी नहीं जाना है . आज सलाहकार व सलाह आनलाइन, मोबाइल  व ईमेल से उपलब्ध है , भुगतान की क्षमता भी आप के पास है और  घर बैठे पेमेंट भी कर सकते हैं . 

 फिर भी आप अगर कार्य करने से पहले ठोस सलाह नहीं लेना चाहते हैं तो कोई विशेष बात नहीं है क्योँकि  98% भारतीय नुकसान होने के बाद ही पेशेवर सलाहकार की शरण में जाते हैं . 

 हालांकि उस वक्त फीस ज्यादा देने के बावजूद सलाहकार आपको  आपका खोया निवेश , स्वास्थ्य , प्रतिष्ठा व समय वापस नहीं दिला सकेगा क्योँकि   समय पर गुरु से सलाह न लेने से शनि का जो अनर्थचक्र मिसाइल की तरह  चालू होता है उसे गुरु बृहस्पति भी नहीं रोक पाते , यह ज्योतिष का स्थापित सत्य है !!!