सूर्य के संबंध में कुछ बातें जान लेनी जरूरी हैं। सबसे पहली तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से समस्त सौर परिवार का--मंगल का, बृहस्पति का, चंद्र का, पृथ्वी का जन्म हुआ है। ये सब सूर्य के ही अंग हैं। फिर पृथ्वी पर जीवन का जन्म हुआ--पौधों से लेकर मनुष्य तक। मनुष्य पृथ्वी का अंग है, पृथ्वी सूरज का अंग है। अगर हम इसे ऐसा समझें--एक मां है, उसकी एक बेटी है और उसकी एक बेटी है। उन तीनों के शरीर में एक ही रक्त प्रवाहित होता है, उन तीनों के शरीर का निर्माण एक ही तरह के सेल्स से, एक ही तरह के कोष्ठों से होता है।
और वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं एम्पैथी का। जो चीजें एक से ही पैदा होती हैं उनके भीतर एक अंतर-समानुभूति होती है। सूर्य से पृथ्वी पैदा होती है, पृथ्वी से हम सबके शरीर निर्मित होते हैं। थोड़ा ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है। सूर्य पर जो भी घटित होता है वह हमारे रोम-रोम में स्पंदित होता है। होगा ही। क्योंकि हमारा रोम-रोम भी सूर्य से ही निर्मित है। सूर्य इतना दूर दिखाई पड़ता है, इतना दूर नहीं है। हमारे रक्त के एक-एक कण में और हड्डी के एक-एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है। हम सूर्य के ही टुकड़े हैं। और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते हों तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं--एम्पैथी है, समानुभूति है।
समानुभूति को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है, तो ज्योतिष के एक आयाम में प्रवेश हो सकेगा।
कल मैंने जुड़वां बच्चों की बात आपसे की। अगर एक ही अंडे से पैदा हुए दो बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया जाए--और इस तरह के बहुत से प्रयोग पिछले पचास वर्षों में किए गए हैं। एक ही अंडज जुड़वां बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया गया है, फिर दोनों कमरों में एक साथ घंटी बजाई गई है और दोनों बच्चों को कहा गया है, उनको जो पहला खयाल आता हो वे उसे कागज पर लिख लें, या जो पहला चित्र उनके दिमाग में आता हो वे उसे कागज पर बना लें।
और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर बीस चित्र बनवाए गए हैं दोनों बच्चों से तो उसमें नब्बे प्रतिशत दोनों बच्चों के चित्र एक जैसे हैं। उनके मन में जो पहली विचारधारा पैदा होती है, जो पहला शब्द बनता है या जो पहला चित्र बनता है, ठीक उसके ही करीब वैसा ही विचार और वैसा ही शब्द दूसरे जुड़वां बच्चे के भीतर भी बनता और निर्मित होता है।
इसे वैज्ञानिक कहते हैं एम्पैथी। इन दोनों के बीच इतनी समानता है कि ये एक से प्रतिध्वनित होते हैं। इन दोनों के भीतर अनजाने मार्गों से जैसे जोड़ है, कोई कम्युनिकेशन है।
सूर्य और पृथ्वी के बीच ऐसा ही कम्युनिकेशन है, ऐसा ही संवाद है प्रतिपल। और पृथ्वी और मनुष्य के बीच भी इसी तरह का संवाद है प्रतिपल। तो सूर्य, पृथ्वी और मनुष्य, उन तीनों के बीच निरंतर संवाद है, एक निरंतर डायलाग है। लेकिन वह जो संवाद है, डायलाग है, वह बहुत गुह्य है और बहुत आंतरिक है और बहुत सूक्ष्म है। उसके संबंध में थोड़ी सी बातें समझेंगे तो खयाल में आएगा।
अमरीका में एक रिसर्च सेंटर है--ट्री रिंग रिसर्च सेंटर। वृक्षों में जो, वृक्ष आप काटें तो वृक्ष के तने में आपको बहुत से रिंग्स, बहुत से वर्तुल दिखाई पड़ेंगे। फर्नीचर पर जो सौंदर्य मालूम पड़ता है वह उन्हीं वर्तुलों के कारण है। पचास वर्ष से यह रिसर्च केंद्र, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं उन पर काम कर रहा है। तो प्रोफेसर डगलस अब उसके डायरेक्टर हैं, जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं, चक्र बन जाते हैं, उन पर ही पूरा व्यय किया है। बहुत से तथ्य हाथ लगे हैं। पहला तथ्य तो सभी को ज्ञात है साधारणतः कि वृक्ष की उम्र उसमें बने हुए रिंग्स के द्वारा जानी जा सकती है, जानी जाती है। क्योंकि प्रतिवर्ष एक रिंग वृक्ष में निर्मित होता है। एक छाल वृक्ष छोड़ देता है, अपनी चमड़ी छोड़ देता है, और एक रिंग निर्मित हो जाता है। वृक्ष की कितनी उम्र है, उसके भीतर कितने रिंग बने हैं, इनसे तय हो जाता है। अगर वह पचास साल पुराना है, उसने पचास पतझड़ देखे हैं, तो पचास रिंग उसके तने में निर्मित हो जाते हैं। और हैरानी की बात यह है कि इन तनों पर जो रिंग निर्मित होते हैं वे मौसम की भी खबर देते हैं!
अगर मौसम बहुत गर्म और गीला रहा हो तो जो रिंग है वह चौड़ा निर्मित होता है। अगर मौसम बहुत सर्द और सूखा रहा हो तो जो रिंग है वह बहुत संकरा निर्मित होता है। हजारों साल पुरानी लकड़ी को काट कर पता लगाया जा सकता है कि उस वर्ष जब यह रिंग बना था तो मौसम कैसा था। बहुत वर्षा हुई थी या नहीं हुई थी। सूखा पड़ा था या नहीं पड़ा था। अगर बुद्ध ने कहा है कि इस वर्ष बहुत वर्षा हुई, तो जिस बोधिवृक्ष के नीचे वे बैठे थे वह भी खबर देगा कि वर्षा हुई कि नहीं हुई। बुद्ध से भूल-चूक हो जाए, वह जो वृक्ष है, बोधिवृक्ष, उससे भूल-चूक नहीं होती। उसका रिंग बड़ा होगा, छोटा होगा।
डगलस इन वर्तुलों की खोज करते-करते एक ऐसी जगह पहुंच गया जिसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। उसने अनुभव किया कि प्रत्येक ग्यारहवें वर्ष पर रिंग जितना बड़ा होता है उतना फिर कभी बड़ा नहीं होता। और वह ग्यारह वर्ष वही वर्ष है जब सूरज पर सर्वाधिक गतिविधि होती है। हर ग्यारहवें वर्ष पर सूरज में एक रिद्म, एक लयबद्धता है, हर ग्यारह वर्ष पर सूरज बहुत सक्रिय हो जाता है। उस पर रेडियो एक्टिविटी बहुत तीव्र होती है। सारी पृथ्वी पर उस वर्ष सभी वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं। एकाध जगह नहीं, एकाध जंगल में नहीं--सारी पृथ्वी पर, सारे वृक्ष उस वर्ष उस रेडियो एक्टिविटी से अपनी रक्षा करने के लिए मोटा रिंग बनाते हैं। वह जो सूरज पर तीव्र घटना घटती है ऊर्जा की, उससे बचाव के लिए उनको मोटी चमड़ी बनानी पड़ती है उस वर्ष, हर ग्यारह वर्ष।
इससे वैज्ञानिकों में एक नया शब्द और एक नयी बात शुरू हुई। मौसम सब जगह अलग होते हैं। यहां सर्दी है, कहीं गर्मी है, कहीं वर्षा है, कहीं शीत है--सब जगह मौसम अलग हैं। इसलिए अब तक कभी पृथ्वी का मौसम, क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ--ऐसा कोई शब्द प्रयोग नहीं होता था। लेकिन अब डगलस ने इस शब्द का प्रयोग करना शुरू किया है--क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ। ये सब छोटे-मोटे फर्क तो हैं ही, लेकिन पूरी पृथ्वी पर भी सूरज के कारण एक विशेष मौसम चलता है। जो हम नहीं पकड़ पाते, लेकिन वृक्ष पकड़ते हैं। हर ग्यारहवें वर्ष पर वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं, फिर रिंग छोटे होते जाते हैं। फिर पांच साल के बाद बड़े होने शुरू होते हैं, फिर ग्यारहवें साल पर जाकर पूरे बड़े हो जाते हैं।
अगर वृक्ष इतने संवेदनशील हैं और सूरज पर होती हुई कोई भी घटना को इतनी व्यवस्था से अंकित करते हैं, तो क्या आदमी के चित्त में भी कोई पर्त होगी, क्या आदमी के शरीर में भी कोई संवेदना का सूक्ष्म रूप होगा, क्या आदमी भी कोई रिंग और वर्तुल निर्मित करता होगा अपने व्यक्तित्व में?
अब तक साफ नहीं हो सका। अभी तक वैज्ञानिकों को साफ नहीं है कोई बात कि आदमी के भीतर क्या होता है। लेकिन यह असंभव मालूम पड़ता है कि जब वृक्ष भी सूर्य पर घटती घटनाओं को संवेदित करते हों तो आदमी किसी भांति संवेदित न करता हो।
ज्योतिष, जो जगत में कहीं भी घटित होता है वह मनुष्य के चित्त में भी घटित होता है, इसकी ही खोज है। इस पर हम पीछे बात करेंगे कि मनुष्य भी वृक्षों जैसी ही खबरें अपने भीतर लिए चलता है, लेकिन उसे खोलने का ढंग उतना आसान नहीं है जितना वृक्ष को खोलने का ढंग आसान है। वृक्ष को काट कर जितनी सुविधा से हम पता लगा लेते हैं उतनी सुविधा से आदमी को काट कर पता नहीं लगा सकते हैं। आदमी को काटना सूक्ष्म मामला है। और आदमी के पास चित्त है, इसलिए आदमी का शरीर उन घटनाओं को नहीं रिकार्ड करता, चित्त रिकार्ड करता है। वृक्षों के पास चित्त नहीं है, इसलिए शरीर ही उन घटनाओं को रिकार्ड करता है।
एक और बात इस संबंध में खयाल ले लेने जैसी है। जैसा मैंने कहा कि प्रति ग्यारह वर्ष में सूरज पर तीव्र रेडियो एक्टिविटी, तीव्र वैद्युतिक तूफान चलते हैं, ऐसा प्रति ग्यारह वर्ष पर एक रिद्म है। ठीक ऐसा ही एक दूसरा बड़ा रिद्म भी पता चलना शुरू हुआ है, वह है नब्बे वर्ष का, सूरज के ऊपर। और वह और हैरान करने वाला है। और यह जो मैं कह रहा हूं ये सब वैज्ञानिक तथ्य हैं। ज्योतिषी इस संबंध में कुछ नहीं कहते हैं। लेकिन मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि इनके आधार पर ज्योतिष को वैज्ञानिक ढंग से समझना आपके लिए आसान हो सकेगा। नब्बे वर्ष का एक दूसरा वर्तुल है जो कि अनुभव किया गया है। उसके अनुभव की कथा बड़ी अदभुत है।
फैरोह ने इजिप्त में आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिकों को कहा कि नील नदी में जब भी पानी घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्योरा रखा जाए। और अकेली नील एक ऐसी नदी है, जिसकी चार हजार वर्ष की बायोग्राफी है। और किसी नदी की कोई बायोग्राफी नहीं है। उसकी जीवन-कथा है पूरी। कब उसमें इंच भर पानी बढ़ा है, तो उसका पूरा रिकार्ड है--चार हजार वर्ष, फैरोह के जमाने से लेकर आज तक।
फैरोह का अर्थ होता है सूर्य, इजिप्त की भाषा में। फैरोह, जो इजिप्त का सम्राट अपना नाम रखता था, वह सूर्य के आधार पर था। और इजिप्त में ऐसा खयाल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। तो फैरोह, जो कि सूर्य का भक्त था, उसने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए। सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है, लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में भी पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकेगा। तो चार हजार साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंच भर पानी कब बढ़ा, इंच भर कब कम हुआ; कब उसमें पूर आया, कब पूर नहीं आया; कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी बही, इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच-इंच उपलब्ध है।
इजिप्त के एक विद्वान तस्मान ने पूरे नील की कथा लिखी। और अब सूर्य के संबंध में वे बातें ज्ञात हो गईं जो फैरोह के वक्त ज्ञात नहीं थीं और जिनके लिए फैरोह ने कहा था प्रतीक्षा करना! इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह सूरज से संबंधित है। और नब्बे वर्ष की रिद्म का पता चलता है। हर नब्बे वर्ष में सूर्य पर एक अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम मृत्यु कह सकते हैं--या जन्म कह सकते हैं।
ऐसा समझ लें कि सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और पैंतालीस वर्ष तक बूढ़ा होता है। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते हैं वे पैंतालीस वर्ष तक जो जवानी की तरफ बढ़ते हैं, क्लाइमेक्स की तरफ जाते हैं, सूरज जैसे जवान होता चला जाता है। और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है, उसकी उम्र जैसे नीचे गिरने लगती है, और नब्बे वर्ष में सूर्य बिलकुल बूढ़ा हो जाता है। नब्बे वर्ष में जब सूर्य बूढ़ा होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों का संबंध नब्बे वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता है। वह बड़ी भारी घटना है; क्योंकि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वी उससे कंपित हो जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन जब पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु भूकंपों से भर जाती है तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ नहीं होता होगा? पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु, जब सूरज पर परिवर्तन होते हैं तो कंपित हो जाती है, भूकंपों से भर जाती है, तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ भी न होता होगा! ज्योतिषी सिर्फ यही पूछते रहे हैं। वे कहते हैं, यह असंभव है। पता हो तुम्हें या न पता हो, लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती।
पैंतालीस वर्ष जब सूरज जवान होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होते हैं उनका स्वास्थ्य अदभुत रूप से अच्छा होगा। और जब पैंतालीस वर्ष सूरज बूढ़ा होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होंगे उनका स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं हो पाता। जब सूरज खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चे पैदा होते हैं उनकी हालत ठीक वैसी है जैसे पूरब को नाव ले जानी हो और पश्चिम को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डांड चलाने पड़ते हैं, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते। फिर पाल खोल कर नाव नहीं ले जाई जा सकती, क्योंकि उलटे बहना पड़ता है। जब सूरज ही बूढ़ा होता है, सूरज जो कि प्राण है सारे सौर परिवार का, तब जिसको भी जवान होना है उसे उलटी धारा में तैरना पड़ता है--हवा के खिलाफ। उसके लिए संघर्ष भारी है। जब सूरज ही जवान हो रहा होता है तो पूरा सौर परिवार शक्तियों से भरा होता है और उठान की तरफ होता है। तब जो पैदा होता है, वह जैसे पाल वाली नाव में बैठ गया। पूरब की तरफ हवाएं बह रही हैं, उसे डांड भी नहीं चलानी है, पतवार भी नहीं चलानी है, श्रम भी नहीं करना है, नाव खुद बह जाएगी। पाल खोल देना है, हवाएं नाव को ले जाएंगी।
इस संबंध में अब वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्था में जाता है तब पृथ्वी पर कम से कम बीमारियां होती हैं। और जब सूरज अपने उतार पर होता है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती हैं। पृथ्वी पर पैंतालीस साल बीमारियों के होते हैं और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते हैं।
नील ठीक चार हजार वर्षों में हर नब्बे वर्ष में इसी तरह जवान और बूढ़ी होती रही है। जब सूरज जवान होता है तो नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाता है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढ़ा होने लगता है, तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, वह शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है।
आदमी इस विराट जगत में कुछ अलग-थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है।
अब तक हमने जो भी श्रेष्ठतम घड़ियां बनाई हैं वे कोई भी उतनी टु दि टाइम, उतना ठीक से समय नहीं बतातीं जितनी पृथ्वी बताती है। पृथ्वी अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्कर पूरा करती है। उसी के आधार पर चौबीस घंटे का हमने हिसाब तैयार किया हुआ है और हमने घड़ी बनाई हुई है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह ठीक तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्र पूरा करती है। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं समझा गया था कि पृथ्वी कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना था कि हमारे पास जांचने के बहुत ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी।
लेकिन जब नब्बे वर्ष का वर्तुल पूरा होता है सूर्य का तो पृथ्वी की घड़ी एकदम डगमगा जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्यारह वर्ष में जब सूरज पर उत्पात होता है तब भी पृथ्वी डगमगा जाती है, उसकी घड़ी गड़बड़ हो जाती है। जब भी पृथ्वी रोज अपनी यात्रा में नये-नये प्रभावों के अंतर्गत आती है, जब भी कोई नया प्रभाव, कोई नया कास्मिक इनफ्लुएंस, कोई महातारा करीब हो जाता है--और करीब का मतलब, इस महा आकाश में बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं--जरा सा करीब आ जाता है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम कहते हैं जरा सा करीब आ जाता है तो हम सोचते हैं कि शायद जैसे हमारे पास कोई आदमी आ गया। नहीं, फासले बहुत बड़े हैं। उन फासलों में जरा सा अंतर पड़ जाता है, जो कि हमें कहीं पता भी नहीं चलेगा, तो भी पृथ्वी की कील डगमगा जाती है।
पृथ्वी को हिलाने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है--इंच भर हिलाने के लिए भी। तो महाशक्तियां जब गुजरती हैं पृथ्वी के पास से, तभी वह हिल पाती है। लेकिन वे महाशक्तियां जब पृथ्वी के पास से गुजरती हैं तो हमारे पास से भी गुजरती हैं। और ऐसा नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर लगे हुए वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्य कंपित न हो। सब कंप जाता है।
लेकिन कंपन इतने सूक्ष्म हैं कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि पृथ्वी कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण हैं। सेकेंड के हजारवें हिस्से में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते हैं। लेकिन आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं हैं। वह मामला और भी सूक्ष्म है। आदमी इतना सूक्ष्म है, और होना जरूरी है, अन्यथा जीना मुश्किल हो जाए। अगर चौबीस घंटे आपको चारों तरफ के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न पाएं। आप जी सकते हैं तभी जब कि आपको आस-पास के प्रभावों का कोई पता नहीं चलता।
एक और नियम है। वह नियम यह है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्ति से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है।
जैसे समझ लें कि बुखार चढ़ता है, तो अट्ठानबे डिग्री हमारी एक सीमा है। और एक सौ दस डिग्री हमारी दूसरी सीमा है। बारह डिग्री में हम जीते हैं। नब्बे डिग्री नीचे गिर जाए तापमान तो हम समाप्त हो जाते हैं। उधर एक सौ दस डिग्री के बाहर चला जाए तो हम समाप्त हो जाते हैं। लेकिन क्या आप समझते हैं, दुनिया में गर्मी बारह डिग्रियों की ही है? आदमी बारह डिग्री के भीतर जीता है। दोनों सीमाओं के इधर-उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक बैलेंस है, अट्ठानबे और एक सौ दस के बीच में उसको अपने को सम्हाले रखना है।
ठीक ऐसा बैलेंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं, आप सुन रहे हैं। अगर मैं बहुत धीमे बोलूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बोलूं और आप न सुन पाएं। लेकिन यह आपको खयाल में आ जाएगा कि बहुत धीमे बोला जाए तो सुनाई नहीं पड़ेगा, लेकिन आपको यह खयाल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएं। तो आपको कठिन लगेगा, क्योंकि जोर से बोलेंगे तब तो सुनाई पड़ेगा ही।
नहीं, वैज्ञानिक कहते हैं, हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी हम नहीं सुन पाते, उसके ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आस-पास भयंकर आवाजें गुजर रही हैं। लेकिन हम सुन नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित होता है या बिखरता है, तो भयंकर गर्जना वाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती हैं। अगर हम उनको सुन पाएं तो हम तत्काल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित हैं, क्योंकि हमारे कान सीमा में ही सुनते हैं। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है, बस उतने को सुन लेते हैं।
देखने के मामले में भी हमारी वही सीमा है। हमारी सभी इंद्रियां एक दायरे के भीतर हैं, न उसके ऊपर, न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ता है, वह आपसे ज्यादा सूंघ लेता है। उसका दायरा सूंघने का आपसे बड़ा है। जो आप नहीं सूंघ पाते, कुत्ता सूंघ लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन लेता है। उसके सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक-डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोड़ा चौंक कर खड़ा हो जाता है। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको सारी गंध आने लगें जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही हैं, तो आप विक्षिप्त हो जाएं। मनुष्य एक कैप्सूल में बंद है, उसकी सीमांत है, उसकी बाउंड्रीज हैं।
आप रेडियो लगाते हैं और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्या आप सोचते हैं, जब रेडियो लगाते हैं तब आवाज आनी शुरू होती है?
आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है, आप रेडियो लगाएं या न लगाएं। लगाते हैं तब रेडियो पकड़ लेता है, बहती तो पूरे वक्त रहती है। दुनिया में जितने रेडियो स्टेशन हैं, सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही हैं। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप रेडियो नहीं लगाते हैं तब भी गुजर रही हैं, लेकिन आपको सुनाई नहीं पड? रही हैं। आपको सुनाई नहीं पड़ रही हैं।
जगत में न मालूम कितनी ध्वनियां हैं जो चारों तरफ हमारे गुजर रही हैं। भयंकर कोलाहल है। वह पूरा कोलाहल हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। ध्यान रहे, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। वह हमारे रोएं-रोएं को स्पर्श करता है। हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन को छूता है। हमारे स्नायु-स्नायु को कंपा जाता है। वह अपना काम तो कर ही रहा है। उसका काम तो जारी है। जिस सुगंध को आप नहीं सूंघ पाते उसके अणु भी आपके चारों तरफ अपना काम तो कर ही जाते हैं। और अगर उसके अणु किसी बीमारी को लाए हैं तो वे आपको दे जाते हैं। आपकी जानकारी आवश्यक नहीं है किसी वस्तु के होने के लिए।
ज्योतिष का कहना है कि हमारे चारों तरफ ऊर्जाओं के क्षेत्र हैं, एनर्जी फील्ड्स हैं, और वे पूरे समय हमें प्रभावित कर रहे हैं। जैसा मैंने कल कहा कि जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, तो जन्म को वैज्ञानिक भाषा में हम कहें एक्सपोजर, जैसे कि फिल्म को हम एक्सपोज करते हैं कैमरे में। जरा सा शटर आप दबाते हैं, एक क्षण के लिए कैमरे की खिड़की खुलती है और बंद हो जाती है। उस क्षण में जो भी कैमरे के समक्ष आ जाता है वह फिल्म पर अंकित हो जाता है। फिल्म एक्सपोज हो गई। अब दुबारा उस पर कुछ अंकित न होगा--अंकित हो गया। और अब यह फिल्म उस आकार को सदा अपने भीतर लिए रहेगी।
जिस दिन मां के पेट में पहली दफा गर्भाधान होता है तो पहला एक्सपोजर होता है। जिस दिन मां के पेट से बच्चा बाहर आता है, जन्म लेता है, उस दिन दूसरा एक्सपोजर होता है। और ये दोनों एक्सपोजर उस संवेदनशील चित्त पर फिल्म की भांति अंकित हो जाते हैं। पूरा जगत उस क्षण में बच्चा अपने भीतर अंकित कर लेता है। और उसकी सिम्पैथीज निर्मित हो जाती हैं।
ज्योतिष इतना ही कहता है कि यदि वह बच्चा जब पैदा हुआ है तब अगर रात है...और जान कर आप हैरान होंगे कि सत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में पैदा होते हैं! यह थोड़ा हैरानी का है। क्योंकि आमतौर से पचास प्रतिशत होने चाहिए। चौबीस घंटे का हिसाब है, इसमें कोई हिसाब भी न हो, बेहिसाब भी बच्चे पैदा हों, तो बारह घंटे रात, बारह घंटे दिन, साधारण संयोग और कांबिनेशन से ठीक है पचास-पचास प्रतिशत हो जाएं! कभी भूल-चूक दो-चार प्रतिशत इधर-उधर हो। लेकिन नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में जन्म लेते हैं; दस प्रतिशत बच्चे मुश्किल से जन्म दिन में लेते हैं। अकारण नहीं हो सकती यह बात, इसके पीछे बहुत कारण हैं।
समझें, एक बच्चा रात में जन्म लेता है। तो उसका जो एक्सपोजर है, उसके चित्त की जो पहली घटना है इस जगत में अवतरण की, वह अंधेरे से संयुक्त होती है, प्रकाश से संयुक्त नहीं होती। यह सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं, क्योंकि बात तो और विस्तीर्ण है। सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। उसके चित्त पर जो पहली घटना है वह अंधकार है। सूर्य अनुपस्थित है। सूर्य की ऊर्जा अनुपस्थित है। चारों तरफ जगत सोया हुआ है। पौधे अपनी पत्तियों को बंद किए हुए हैं। पक्षी अपने पंखों को सिकोड़ कर आंखें बंद किए हुए अपने घोंसलों में छिप गए हैं। सारी पृथ्वी पर निद्रा है। हवा के कण-कण में चारों तरफ नींद है। सब सोया हुआ है। जागा हुआ कुछ भी नहीं है। यह पहला इंपैक्ट है बच्चे पर।
अगर हम बुद्ध और महावीर से पूछें तो वे कहेंगे कि अधिक बच्चे इसलिए रात में जन्म लेते हैं क्योंकि अधिक आत्माएं सोई हुई हैं, एस्लीप हैं। दिन को वे नहीं चुन सकते पैदा होने के लिए। दिन को चुनना कठिन है। और हजार कारण हैं, और हजार कारण हैं, एक कारण महत्वपूर्ण यह भी है--अधिकतम लोग सोए हुए हैं, अधिकतम लोग तंद्रित हैं, अधिकतम लोक निद्रा में हैं, अधिकतम लोग आलस्य में, प्रमाद में हैं। सूर्य के जागने के साथ उनका जन्म ऊर्जा का जन्म होगा, सूर्य के डूबे हुए अंधेरे की आड़ में उनका जन्म नींद का जन्म होगा।
रात में एक बच्चा पैदा हो रहा है तो एक्सपोजर एक तरह का होने वाला है। जैसे कि हमने अंधेरे में एक फिल्म खोली हो या प्रकाश में एक फिल्म खोली हो, तो एक्सपोजर भिन्न होने वाले हैं। एक्सपोजर की बात थोड़ी और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि वह ज्योतिष के बहुत गहराइयों से संबंधित है।
जो वैज्ञानिक एक्सपोजर के संबंध में खोज करते हैं वे कहते हैं कि एक्सपोजर की घटना बहुत बड़ी है, छोटी घटना नहीं है। क्योंकि जिंदगी भर वह आपका पीछा करेगी। एक मुर्गी का बच्चा पैदा होता है। पैदा हुआ कि भागने लगता है मुर्गी के पीछे। हम कहते हैं कि मां के पीछे भाग रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं। मां से कोई संबंध नहीं है; एक्सपोजर! हम कहते हैं, अपनी मां के पीछे भाग रहा है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं! पहले हम भी ऐसा ही सोचते थे कि मां के पीछे भाग रहा है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और जब सैकड़ों प्रयोग किए गए तो बात सही हो गई है।
वैज्ञानिकों ने सैकड़ों प्रयोग किए। मुर्गी का बच्चा जन्म रहा है, अंडा फूट रहा है, चूजा बाहर निकल रहा है, तो उन्होंने मुर्गी को हटा लिया और उसकी जगह एक रबर का गुब्बारा रख दिया। बच्चे ने जिस चीज को पहली दफा देखा वह रबर का गुब्बारा था, मां नहीं थी। आप चकित होंगे यह जान कर कि वह बच्चा एक्सपोज्ड हो गया। इसके बाद वह रबर के गुब्बारे को ही मां की तरह प्रेम कर सका। फिर वह अपनी मां को नहीं प्रेम कर सका। रबर का गुब्बारा हवा में इधर-उधर जाएगा तो वह पीछे भागेगा। उसकी मां भागती रहेगी तो उसकी फिक्र ही नहीं करेगा। रबर के गुब्बारे के प्रति वह आश्चर्यजनक रूप से संवेदनशील हो गया। जब थक जाएगा तो गुब्बारे के पास टिक कर बैठ जाएगा। गुब्बारे को प्रेम करने की कोशिश करेगा। गुब्बारे से चोंच लड़ाने की कोशिश करेगा--लेकिन मां से नहीं।
इस संबंध में बहुत काम लारेंज नाम के एक वैज्ञानिक ने किया है और उसका कहना है कि वह जो फर्स्ट मोमेंट एक्सपोजर है, वह बड़ा महत्वपूर्ण है। वह मां से इसीलिए संबंधित हो जाता है--मां होने की वजह से नहीं, फर्स्ट एक्सपोजर की वजह से। इसलिए नहीं कि वह मां है इसलिए उसके पीछे दौड़ता है; इसलिए कि वही सबसे पहले उसको उपलब्ध होती है इसलिए पीछे दौड़ता है।
अभी इस पर और काम चला है। जिन बच्चों को मां के पास बड़ा न किया जाए वे किसी स्त्री को जीवन में कभी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते--एक्सपोजर ही नहीं हो पाता। अगर एक बच्चे को उसकी मां के पास बड़ा न किया जाए तो स्त्री का जो प्रतिबिंब उसके मन में बनना चाहिए वह बनता ही नहीं। और अगर पश्चिम में आज होमोसेक्सुअलिटी बढ़ती हुई है तो उसके एक बुनियादी कारणों में वह कारण है। हेट्रोसेक्सुअल, विजातीय यौन के प्रति जो प्रेम है वह पश्चिम में कम होता चला जा रहा है। और सजातीय यौन के प्रति प्रेम बढ़ता चला जा रहा है, जो विकृति है। लेकिन वह विकृति होगी। क्योंकि दूसरे यौन के प्रति जो प्रेम है--पुरुष का स्त्री के प्रति और स्त्री का पुरुष के प्रति--वह बहुत सी शर्तों के साथ है। पहला तो एक्सपोजर जरूरी है। बच्चा पैदा हुआ है तो उसके मन पर क्या एक्सपोज हो!
अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। दुनिया में स्त्रियां तब तक सुखी न हो पाएंगी जब तक उनका एक्सपोजर मां के साथ हो रहा है। उनका एक्सपोजर पिता के साथ होना चाहिए। पहला इंपैक्ट लड़की के मन पर पिता का पड़ना चाहिए। तो ही वह किसी पुरुष को भरपूर मन से प्रेम करने में समर्थ हो पाएगी। अगर पुरुष स्त्री से जीत जाता है तो उसका कुल कारण इतना है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही मां के पास बड़े होते हैं। तो लड़के का एक्सपोजर तो बिलकुल ठीक होता है स्त्री के प्रति, लेकिन लड़की का एक्सपोजर बिलकुल ठीक नहीं होता। इसलिए जब तक दुनिया में लड़की को पिता का एक्सपोजर नहीं मिलता तब तक स्त्रियां कभी भी पुरुष के समकक्ष खड़ी नहीं हो सकेंगी--न राजनीति के द्वारा, न नौकरी के द्वारा, न आर्थिक स्वतंत्रता के द्वारा। क्योंकि मनोवैज्ञानिक अर्थों में एक कमी उनमें रह जाती है। वह अब तक की पूरी संस्कृति उस कमी को पूरा नहीं कर पाई है।
अगर यह छोटा सा गुब्बारा, या मुर्गी, या मां, इनका एक्सपोजर प्रभावी हो जाता है इतना ज्यादा कि चित्त सदा के लिए उससे निर्मित हो जाता है! ज्योतिष कहता है कि जो भी चारों तरफ मौजूद है, दि होल यूनिवर्स, वह सभी का सभी उस एक्सपोजर के क्षण में, उस चित्त के खुलने के क्षण में भीतर प्रवेश कर जाता है और जीवन भर की सिम्पैथीज और एंटीपैथीज निर्मित हो जाती हैं। उस क्षण जो नक्षत्र पृथ्वी को चारों तरफ से घेरे हुए हैं--नक्षत्र घेरे हुए हैं, उसका कुल मतलब इतना कि उस क्षण पृथ्वी के ऊपर जिन नक्षत्रों की रेडियो एक्टिविटी का प्रभाव पड़ रहा है।
अब वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रत्येक ग्रह की रेडियो एक्टिविटी अलग है। जैसे वीनस; उससे जो रेडियो सक्रिय तत्व हमारी तरफ आते हैं वे चांद के रेडियो सक्रिय तत्वों से भिन्न हैं। या जैसे ज्युपिटर; उससे जो रेडियो तत्व हम तक आते हैं वे सूर्य के रेडियो तत्वों से भिन्न हैं। क्योंकि इन प्रत्येक ग्रहों के पास अलग तरह की गैसों और अलग तरह के तत्वों का वातावरण है। उन सबसे अलग-अलग प्रभाव पृथ्वी की तरफ आते हैं। और जब एक बच्चा पैदा हो रहा है तो पृथ्वी के चारों तरफ क्षितिज को घेर कर खड़े हुए जो भी नक्षत्र हैं--ग्रह हैं, उपग्रह हैं, दूर आकाश में महातारे हैं--वे सब के सब उस एक्सपोजर के क्षण में बच्चे के चित्त पर गहराइयों तक प्रवेश कर जाते हैं। फिर उसकी कमजोरियां, उसकी ताकतें, उसका सामर्थ्य, सब सदा के लिए प्रभावित हो जाता है।
अब जैसे हिरोशिमा में एटम बम के गिरने के बाद पता चला, उसके पहले पता नहीं था। हिरोशिमा में एटम जब तक नहीं गिरा था तब तक इतना खयाल था कि एटम गिरेगा तो लाखों लोग मरेंगे; लेकिन यह पता नहीं था कि पीढ़ियों तक आने वाले बच्चे प्रभावित हो जाएंगे। हिरोशिमा और नागासाकी में जो लोग मर गए, मर गए! वह तो एक क्षण की बात थी, समाप्त हो गए। लेकिन हिरोशिमा में जो वृक्ष बच गए, जो जानवर बच गए, जो पक्षी बच गए, जो मछलियां बच गईं, जो आदमी बच गए, वे सदा के लिए प्रभावित हो गए।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि दस पीढ़ियों में हमें पूरा अंदाज लग पाएगा कि क्या-क्या परिणाम हुए। क्योंकि इनका सब कुछ रेडियो एक्टिविटी से प्रभावित हो गया। अब जो स्त्री बच गई है उसके शरीर में जो अंडे हैं वे प्रभावित हो गए। अब वे अंडे, कल उनमें से एक अंडा बच्चा बनेगा, वह बच्चा वैसा ही बच्चा नहीं होगा जैसा साधारणतः होता है। क्योंकि एक विशेष तरह की रेडियो सक्रियता उस अंडे में प्रवेश कर गई है। वह लंगड़ा हो सकता है, लूला हो सकता है, अंधा हो सकता है। उसकी चार आंखें भी हो सकती हैं, आठ हाथ भी हो सकते हैं। कुछ भी हो सकता है! अभी हम कुछ भी नहीं कह सकते कि वह कैसा होगा। उसका मस्तिष्क बिलकुल रुग्ण भी हो सकता है, प्रतिभाशाली भी हो सकता है। वह जीनियस भी पैदा हो सकता है, जैसा जीनियस कभी पैदा न हुआ हो। अभी हमें कुछ भी पता नहीं कि वह क्या होगा। इतना पक्का पता है कि जैसा होना चाहिए था साधारणतः आदमी, वैसा वह नहीं होगा।
अगर एटम...एटम बहुत छोटी ताकत है। हमारे लिए बहुत बड़ी ताकत है। एक एटम एक लाख बीस हजार आदमियों को मार पाया हिरोशिमा और नागासाकी में। वह बहुत छोटी ताकत है। सूर्य के ऊपर जो ताकत है उसका हम इससे कोई हिसाब नहीं लगा सकते। जैसे अरबों एटम बम एक साथ फूट रहे हों! उतनी रेडियो एक्टिविटी सूरज के ऊपर है। और असाधारण है यह! क्योंकि सूरज चार अरब वर्षों से तो पृथ्वी को ही गर्मी दे रहा है, और उससे पहले से है। और अभी भी वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम चार हजार वर्ष तक तो ठंडे होने की कोई संभावना नहीं है। प्रतिदिन इतनी गर्मी! और सूरज दस करोड़ मील दूर है पृथ्वी से। हिरोशिमा में जो घटना घटी उसका प्रभाव दस मील से ज्यादा दूर नहीं पड़ सका। दस करोड़ मील दूर सूरज है, चार अरब वर्षों से तो वह हमें सारी गर्मी दे रहा है, फिर भी अभी रिक्त नहीं हुआ है। पर यह सूरज कुछ भी नहीं है, इससे महासूर्य हैं, ये सब तारे हैं जो आकाश के। और इन प्रत्येक तारों से अपनी व्यक्तिगत और निजी क्षमता की सक्रियता हम तक प्रवाहित होती है।
एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, जो अंतरिक्ष में फैलती ऊर्जाओं के संबंध में अध्ययन कर रहा है, गाकलिन, उसका कहना है कि जितनी ऊर्जाएं हमें अनुभव में आ रही हैं उनमें से हम एक प्रतिशत के संबंध में भी पूरा नहीं जानते। जब से हमने कृत्रिम उपग्रह छोड? हैं पृथ्वी के बाहर, तब से उन्होंने हमें इतनी खबरें दी हैं कि हमारे पास न शब्द हैं उन खबरों को समझने के लिए, न हमारे पास विज्ञान है। और इतनी ऊर्जाएं, इतनी एनर्जीज चारों तरफ बह रही होंगी, इसकी हमें कल्पना ही नहीं थी।
इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। इस जगत में, जैसा मैंने कल कहा, लोग सोचते हैं कि ज्योतिष कोई विकसित होता हुआ विज्ञान है। मैंने आपसे कहा, हालत उलटी है।
ताजमहल अगर आपने देखा हो तो यमुना के उस पार कुछ दीवारें आपको उठी हुई दिखाई पड़ी होंगी। कहानी यह है कि शाहजहां ने मुमताज के लिए तो ताजमहल बनवाया और अपने लिए, जैसा संगमरमर का ताजमहल है, ऐसा ही अपनी कब्र के लिए संगमूसा का, काले पत्थर का महल वह यमुना के उस पार बना रहा था। लेकिन वह पूरा नहीं हो पाया। ऐसी कथा सदा से प्रचलित थी। लेकिन अभी इतिहासज्ञों ने खोज की है तो पता चला कि वह जो उस तरफ दीवारें उठी खड़ी हैं वे किसी बनने वाले महल की दीवारें नहीं हैं, वे किसी बहुत बड़े महल की, जो गिर चुका, खंडहर हैं! पर उठती दीवारें और खंडहर एक से मालूम पड़ सकते हैं। एक नये मकान की दीवार उठ रही है, अधूरी है अभी, मकान बना नहीं। हजारों साल बाद तय करना मुश्किल हो जाएगा कि यह नये मकान की बनती हुई दीवार है या किसी बने-बनाए मकान की, जो गिर चुका, उसकी बची-खुची अवशेष है, खंडहर है।
पिछले तीन-चार सौ, पांच सौ सालों से यही समझा जाता था कि वह जो दूसरी तरफ महल खड़ा हुआ है, वह शाहजहां बनवा रहा था, वह पूरा नहीं हो पाया। लेकिन अभी जो खोजबीन हुई है उससे पता चलता है कि वह महल पूरा था। और न केवल यह पता चलता है कि वह महल पूरा था, बल्कि यह भी पता चलता है कि ताजमहल शाहजहां ने खुद कभी नहीं बनवाया। वह भी हिंदुओं का बहुत पुराना महल है, जिसको सिर्फ कनवर्ट किया, जिसको सिर्फ थोड़ा सा फर्क किया। क्योंकि...और कई दफे इतनी हैरानी होती है कि जिन बातों को हम सुनने के आदी हो जाते हैं, फिर उनसे भिन्न बात को हम सोचते भी नहीं! ताजमहल जैसी एक भी कब्र दुनिया में किसी ने नहीं बनाई है। कब्र ऐसी बनाई ही नहीं जाती। कब्र ऐसी बनाई ही नहीं जाती! ताजमहल के चारों तरफ सिपाहियों के खड़े होने के स्थान हैं, बंदूकें और तोपें लगाने के स्थान हैं। कब्रों की बंदूकें और तोपें लगा कर कोई रक्षा नहीं करनी पड़ती। वह महल है पुराना, उसको सिर्फ कनवर्ट किया गया है कब्र में। वह दूसरी तरफ भी एक पुराना महल है जो गिर गया, जिसके खंडहर शेष रह गए।
ज्योतिष भी खंडहर की तरह है। वह बहुत बड़ा महल था, पूरा विज्ञान था, जो ढह गया। कोई नयी चीज नहीं है, कोई नया उठता हुआ मकान नहीं है। लेकिन जो दीवारें रह गई हैं उनसे कुछ पता नहीं चलता कि कितना बड़ा महल उसकी जगह रहा होगा। बहुत बार सत्य मिलते हैं और खो जाते हैं।
अरिस्टीकारस नाम के एक यूनानी ने जीसस से दो सौ, तीन सौ वर्ष पूर्व यह सत्य खोज निकाला था कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं है। अरिस्टीकारस का यह सूत्र, हेलियो सेंट्रिक, कि सूरज केंद्र पर है, जीसस से तीन सौ वर्ष पहले खोज निकाला गया था। लेकिन जीसस के सौ वर्ष बाद टोलिमी ने इस सूत्र को उलट दिया और पृथ्वी को फिर केंद्र बना दिया। और फिर दो हजार साल लग गए केपलर और कोपरनिकस को खोजने में वापस कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं है। दो हजार साल तक अरिस्टीकारस का सत्य दबा पड़ा रहा। दो हजार साल बाद जब कोपरनिकस ने फिर से कहा तब अरिस्टीकारस की किताबें खोजी गईं। लोगों ने कहा, यह तो हैरानी की बात है!
अमरीका कोलंबस ने खोजा, ऐसा पश्चिम के लोग कहते हैं। एक बहुत प्रसिद्ध मजाक प्रचलित है। आस्कर वाइल्ड अमरीका गया हुआ था। उसकी मान्यता थी कि अमरीका और भी बहुत पहले खोजा जा चुका है। और यह सच है। यह सच्चाई है कि अमरीका बहुत दफे खोजा जा चुका और पुनः-पुनः खो गया। उससे संबंध-सूत्र टूट गए। एक व्यक्ति ने आस्कर वाइल्ड को पूछा कि हम सुनते हैं कि आप कहते हैं, अमरीका पहले भी खोजा जा चुका है। तो क्या आप नहीं मानते कि कोलंबस ने पहली खोज की? और अगर कोलंबस ने पहली खोज नहीं की तो अमरीका बार-बार क्यों खो गया?
तो आस्कर वाइल्ड ने मजाक में कहा कि कोलंबस ने पुनः खोज की है, ही रि-डिसकवर्ड अमेरिका। इट वाज़ डिसकवर्ड सो मेनी टाइम्स, बट एवरी टाइम हश्ड-अप। हर बार दबा कर इसको चुप रखना पड़ा, क्योंकि यह उपद्रव, इसको बार-बार हश्ड-अप!
महाभारत अमरीका की चर्चा करता है। अर्जुन की एक पत्नी मेक्सिको की लड़की है। मेक्सिको में जो मंदिर हैं वे हिंदू मंदिर हैं, जिन पर गणेश की मूर्ति तक खुदी हुई है।
बहुत बार सत्य खोज लिए जाते हैं, खो जाते हैं। बहुत बार हमें सत्य पकड़ में आ जाता है, फिर खो जाता है। ज्योतिष उन बड़े से बड़े सत्यों में से एक है जो पूरा का पूरा खयाल में आ चुका और खो गया। उसे फिर से खयाल में लाने के लिए बड़ी कठिनाई है। इसलिए मैं बहुत सी दिशाओं से आपसे बात कर रहा हूं। क्योंकि ज्योतिष पर सीधी बात करने का अर्थ होता है कि वह जो सड़क पर ज्योतिषी बैठा है, शायद मैं उसके संबंध में कुछ कह रहा हूं। जिसको आप चार आने देकर और अपना भविष्य-फल निकलवा आते हैं, शायद उसके संबंध में या उसके समर्थन में कुछ कह रहा हूं।
नहीं, ज्योतिष के नाम पर सौ में से निन्यानबे धोखाधड़ी है। और वह जो सौवां आदमी है, निन्यानबे को छोड़ कर उसे समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही। क्योंकि वह जानता है कि ज्योतिष बहुत बड़ी घटना है। इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझक कर ही वहां पैर रख सकता है। जब मैं ज्योतिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो मेरा प्रयोजन है कि मैं उस पूरे-पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूं उस महल के। तो फिर आप भीतर बहुत आश्वस्त होकर प्रवेश कर सकें। और मैं जब ज्योतिष की बात कर रहा हूं तो ज्योतिषी की बात नहीं कर रहा हूं। उतनी छोटी बात नहीं है। पर आदमी की उत्सुकता उसी में है कि उसे पता चल जाए कि उसकी लड़की की शादी इस साल होगी कि नहीं होगी।
इस संबंध में यह भी आपको कह दूं कि ज्योतिष के तीन हिस्से हैं।
एक--जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है--नॉन एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं। और उन दोनों के बीच में एक परिधि है--सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से कर लें। एसेंशियल--जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य, जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की, उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा हिस्सा है--सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य। अगर जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा, तो जो होना है वही होगा। ज्ञान होगा, तो आल्टरनेटिव्स हैं, विकल्प हैं, बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है--नॉन एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है।
लेकिन हम जिस ज्योतिषी की बात समझते हैं, वह नॉन एसेंशियल का ही मामला है। एक आदमी कहता है, मेरी नौकरी लग जाएगी या नहीं लग जाएगी? चांदत्तारों के प्रभाव से आपकी नौकरी के लगने, न लगने का कोई भी गहरा संबंध नहीं है। एक आदमी पूछता है, मेरी शादी हो जाएगी या नहीं हो जाएगी? शादी के बिना भी समाज हो सकता है। एक आदमी पूछता है कि मैं गरीब रहूंगा कि अमीर रहूंगा? एक समाज कम्युनिस्ट हो सकता है, कोई गरीब और अमीर नहीं होगा। ये नॉन एसेंशियल हिस्से हैं जो हम पूछते हैं। एक आदमी पूछता है कि अस्सी साल में मैं सड़क पर से गुजर रहा था और एक संतरे के छिलके पर पैर पड़ कर गिर पड़ा, तो मेरे चांदत्तारों का इसमें कोई हाथ है या नहीं है? अब कोई चांदत्तारे से तय नहीं किया जा सकता कि फलां-फलां नाम के संतरे से और फलां-फलां सड़क पर आपका पैर फिसलेगा। यह निपट गंवारी है।
लेकिन हमारी उत्सुकता इसमें है कि आज हम निकलेंगे सड़क पर से तो कोई छिलके पर पैर पड़ कर फिसल तो नहीं जाएगा। यह नॉन एसेंशियल है। यह हजारों कारणों पर निर्भर है, लेकिन इसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। इसका बीइंग से, आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह घटनाओं की सतह है। ज्योतिष से इसका कोई लेना-देना नहीं है। और चूंकि ज्योतिषी इसी तरह की बात-चीत में लगे रहते हैं इसलिए ज्योतिष का भवन गिर गया। ज्योतिष के भवन के गिर जाने का कारण यह हुआ कि ये बातें बेवकूफी की हैं। कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राजी नहीं हो सकता कि मैं जिस दिन पैदा हुआ उस दिन लिखा था कि मरीन ड्राइव पर फलां-फलां दिन एक छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा और मैं फिसल जाऊंगा। न तो मेरे फिसलने का चांदत्तारों से कोई प्रयोजन है, न उस छिलके का कोई प्रयोजन है। इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योतिष बदनाम हुआ। और हम सबकी उत्सुकता यही है कि ऐसा पता चल जाए। इससे कोई संबंध नहीं है।
सेमी एसेंशियल कुछ बातें हैं। जैसे जन्म-मृत्यु सेमी एसेंशियल हैं। अगर आप इसके बाबत पूरा जान लें तो इसमें फर्क हो सकता है; और न जानें तो फर्क नहीं होगा। चिकित्सा की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी तो हम आदमी की उम्र को लंबा कर लेंगे--कर रहे हैं। अगर हमारी एटम बम की खोजबीन और बढ़ती चली गई तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार डालेंगे--मारा है। यह सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जगत है। जहां कुछ चीजें हो सकती हैं, नहीं भी हो सकती हैं। अगर जान लेंगे तो अच्छा है; क्योंकि विकल्प चुने जा सकते हैं। इसके बाद एसेंशियल का, अनिवार्य का जगत है। वहां कोई बदलाहट नहीं होती। लेकिन हमारी उत्सुकता पहले तो नॉन एसेंशियल में रहती है। कभी शायद किसी की सेमी एसेंशियल तक जाती है। वह जो एसेंशियल है, अनिवार्य है, अपरिहार्य है, जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं, उस केंद्र तक हमारी पकड़ नहीं जाती, न हमारी इच्छा जाती है।
महावीर एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और महावीर का एक शिष्य गोशालक उनके साथ है, जो बाद में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते हैं। गोशालक महावीर से कहता है कि सुनिए, यह पौधा लगा हुआ है। क्या सोचते हैं आप, यह फूल तक पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा? इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे? यह पौधा बचेगा या नहीं बचेगा? इसका भविष्य है या नहीं?
महावीर आंख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते हैं। गोशालक पूछता है कि कहिए! आंख बंद करने से क्या होगा? टालिए मत।
उसे पता भी नहीं कि महावीर आंख बंद करके क्यों खड़े हो गए हैं। वे एसेंशियल की खोज कर रहे हैं। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है, इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा।
आंख खोल कर महावीर कहते हैं कि यह पौधा फूल तक पहुंचेगा। गोशालक उनके सामने ही पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है, और खिलखिला कर हंसता है, क्योंकि इससे ज्यादा और अतक्र्य प्रमाण क्या होगा? महावीर के लिए कुछ कहने की अब और जरूरत क्या है? उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, और उसने कहा कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुस्कुराते हैं। और दोनों अपने रास्ते चले आते हैं।
सात दिन बाद वे वापस उसी रास्ते पर लौट रहे हैं। जैसे ही महावीर और वे दोनों अपने आश्रम में पहुंचे जहां उन्हें ठहर जाना है, बड़ी भयंकर वर्षा हुई। सात दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे हैं। जब लौटते हैं तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गए हैं जहां वे सात दिन पहले आंख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई, उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गईं, वह पौधा खड़ा हो गया।
महावीर फिर आंख बंद करके उसके पास खड़े हो गए, गोशालक बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आंख खोली। गोशालक ने पूछा कि हैरान हूं! आश्चर्य! इस पौधे को हम उखाड़ कर फेंक गए थे, यह तो फिर खड़ा हो गया है! महावीर ने कहा, यह फूल तक पहुंचेगा। और इसीलिए मैं आंख बंद करके खड़े होकर इसे देखा! इसकी आंतरिक पोटेंशिएलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या है? इसकी भीतर की स्थिति क्या है? तुम इसे बाहर से फेंक दोगे उठा कर तो भी यह अपने पैर जमा कर खड़ा हो सकेगा? यह कहीं आत्मघाती तो नहीं है, सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में, कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है! अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा। यह जीने को तत्पर है? अगर यह जीने को तत्पर है तो...मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंक दोगे।
गोशालक ने कहा, आप क्या कहते हैं?
महावीर ने कहा कि जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी पास खड़े थे और तुम भी दिखाई पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है? इसके पास आत्म-बल कितना है? यह कहीं मरने को तो उत्सुक नहीं है कि कोई भी बहाना लेकर मर जाए! तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है। और अन्यथा तुम्हारा उखाड़ कर फेंका गया पौधा पुनः जड़ें पकड़ सकता है।
गोशालक की दुबारा उस पौधे को उखाड़ कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी; डरा। पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था, इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े। गोशालक रास्ते में पूछने लगा, आप हंसते क्यों हैं? महावीर ने कहा कि मैं सोचता था कि देखें, तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है! अब तुम दुबारा इसे उखाड़ कर फेंकते हो या नहीं? गोशालक ने पूछा कि आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़ कर फेंकूंगा या नहीं! तो महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। तुम उखाड़ कर फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था, उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे। वह अनिवार्य था; वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो--तुम पर निर्भर है। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो, हार गए हो।
महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण यह पौधा भी था--महावीर को छोड़ कर चले जाने में।
ज्योतिष का--जिस ज्योतिष की मैं बात कर रहा हूं--उसका संबंध अनिवार्य से, एसेंशियल से, फाउंडेशनल से है। आपकी उत्सुकता ज्यादा से ज्यादा सेमी एसेंशियल तक जाती है। पता लगाना चाहते हैं कि कितने दिन जीऊंगा? मर तो नहीं जाऊंगा? जीकर क्या करूंगा, जी ही लूंगा तो क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता ही नहीं पहुंचती। मरूंगा तो मरते में क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता नहीं पहुंचती। घटनाओं तक पहुंचती है, आत्माओं तक नहीं पहुंचती। जब मैं जी रहा हूं, तो यह तो घटना है सिर्फ। जीकर मैं क्या कर रहा हूं, जीकर मैं क्या हूं, वह मेरी आत्मा है! जब मैं मरूंगा, वह तो घटना होगी। लेकिन मरते क्षण में मैं क्या होऊंगा, क्या करूंगा, वह मेरी आत्मा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सब की घटना एक सी घटेगी। लेकिन मरने के संबंध में, मरने के क्षण में हमारी स्थिति सब की भिन्न होगी। कोई मुस्कुराते हुए मर सकता है!
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है जब वह मरने के करीब है। उससे कोई पूछ रहा है कि आपका क्या खयाल है मुल्ला, लोग जब पैदा होते हैं तो कहां से आते हैं? जब मरते हैं तो कहां जाते हैं? मुल्ला ने कहा, जहां तक अनुभव की बात है, मैंने लोगों को पैदा होते वक्त भी रोते ही पैदा होते देखा और मरते वक्त भी रोते ही जाते देखा है। अच्छी जगह से न आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। इनको देख कर जो अंदाज लगता है, न अच्छी जगह से आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। आते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं, जाते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं।
लेकिन नसरुद्दीन जैसा आदमी हंसता हुआ मर सकता है। मौत तो घटना है, लेकिन हंसते हुए मरना आत्मा है। तो आप कभी ज्योतिषी से पूछे कि मैं हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए? नहीं पूछा होगा। पूरी पृथ्वी पर एक आदमी ने नहीं पूछा ज्योतिषी से जाकर कि मैं मरते वक्त हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा? यह पूछने जैसी बात है, लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से जुड़ी हुई बात है।
आप पूछते हैं, कब मरूंगा? जैसे मरना अपने आप में मूल्यवान है बहुत! कब तक जीऊंगा? जैसे बस जी लेना काफी है! किसलिए जीऊंगा, क्यों जीऊंगा, जीकर क्या करूंगा, जीकर क्या हो जाऊंगा, कोई पूछने नहीं जाता! इसलिए महल गिर गया। क्योंकि वह महल गिर जाएगा जिसके आधार नॉन एसेंशियल पर रखे हों। गैर-जरूरी चीजों पर जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हों वह कैसे टिकेगा! आधारशिलाएं चाहिए।
मैं जिस ज्योतिष की बात कर रहा हूं, और आप जिसे ज्योतिष समझते रहे हैं, उससे गहरी है, उससे भिन्न है, उससे आयाम और है। मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य है। और वह अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त और लयबद्ध है, अलग-अलग नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं हैं।
जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़ कर पृथ्वी पर सिर टेक दिया। कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्कार करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। बुद्ध को पृथ्वी पर हाथ टेके सिर रखे देख कर वे चकित हुए। उन्होंने पूछा कि तुम और किसको नमस्कार कर रहे हो? क्योंकि हम तो तुम्हें नमस्कार करने स्वर्ग से आते हैं। और हम तो नहीं जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्कार करे ऐसा कोई है। बुद्धत्व तो आखिरी बात है।
तो बुद्ध ने आंखें खोलीं और बुद्ध ने कहा, जो भी घटित हुआ है उसमें मैं अकेला नहीं हूं, सारा विश्व है। तो इस सबको धन्यवाद देने के लिए सिर टेक दिया है।
यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से बंधी हुई बात है। सारा जगत...।
इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जब भी तुम्हें कुछ भी भीतरी आनंद मिले, तत्क्षण अनुगृहीत हो जाना समस्त जगत के। क्योंकि तुम अकेले नहीं हो। अगर सूरज न निकलता, अगर चांद न निकलता, अगर एक रत्ती भर भी घटना और घटी होती तो तुम्हें यह नहीं होने वाला था जो हुआ है। माना कि तुम्हें हुआ है, लेकिन सबका हाथ है। सारा जगत उसमें इकट्ठा है।
एक कास्मिक, जागतिक अंतर-संबंध का नाम ज्योतिष है।
तो बुद्ध ऐसा नहीं कहेंगे कि मुझे हुआ है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि जगत को मेरे मध्य हुआ है। यह जो घटना घटी है एनलाइटेनमेंट की, यह जो प्रकाश का आविर्भाव हुआ है, यह जगत ने मेरे बहाने जाना है। मैं सिर्फ एक बहाना हूं, एक क्रास रोड, जहां सारे जगत के रास्ते आकर मिल गए हैं।
कभी आपने खयाल किया है कि चौराहा बड़ा भारी होता है। लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता, वे जो चार रास्ते आकर मिले होते हैं उन चारों को हटा लें तो चौराहा विदा हो जाता है। हम सब क्रिसक्रास प्वाइंट्स हैं, जहां जगत की अनंत शक्तियां आकर एक बिंदु को काटती हैं; वहां व्यक्ति निर्मित हो जाता है, इंडिविजुअल बन जाता है।
तो वह जो सारभूत ज्योतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं हैं। एक, उस एक ब्रह्म के साथ हैं, उस एक ब्रह्मांड के साथ हैं। और प्रत्येक घटना भागीदार है।
तो बुद्ध ने कहा है कि मुझसे पहले जो बुद्ध हुए उनको नमस्कार करता हूं, और मेरे बाद जो बुद्ध होंगे उनको नमस्कार करता हूं।
किसी ने पूछा कि आप उनको नमस्कार करें जो आपके पहले हुए, समझ में आता है। क्योंकि हो सकता है, उनसे कोई जाना-अनजाना ऋण हो। क्योंकि जो आपके पहले जान चुके हैं उनके ज्ञान ने आपको साथ दिया हो। लेकिन जो अभी हुए ही नहीं, उनसे आपको क्या लेना-देना है? उनसे आपको कौन सी सहायता मिली है?
तो बुद्ध ने कहा, जो हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है, जो अभी नहीं हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्य एक हो गए हैं। वहां जो जा चुका है वह उससे मिल रहा है जो अभी आने को है। वहां जो जा चुका उससे मिलन हो रहा है उसका जो अभी आने को है। वहां सूर्योदय और सूर्यास्त एक ही बिंदु पर खड़े हैं। तो मैं उन्हें भी नमस्कार करता हूं जो होंगे; उनका भी मुझ पर ऋण है। क्योंकि अगर वे भविष्य में न हों तो मैं आज न हो सकूंगा।
इसको समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी की बात है। कल जो हुआ है अगर उसमें से कुछ भी खिसक जाए तो मैं न हो सकूंगा, क्योंकि मैं एक शृंखला में बंधा हूं। यह समझ में आता है। अगर मेरे पिता न हों जगत में तो मैं न हो सकूंगा। यह समझ में आता है। क्योंकि एक कड़ी अगर विदा हो जाएगी तो मैं नहीं हो सकूंगा। अगर मेरे पिता के पिता न हों तो मैं न हो सकूंगा, क्योंकि कड़ी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मेरा भविष्य अगर उसमें कोई कड़ी न हो तो मैं न हो सकूंगा, समझना बहुत मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि उससे क्या लेना-देना, मैं तो हो ही गया हूं!
लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर भविष्य में भी जो होने वाला है, वह न हो, तो मैं न हो सकूंगा। क्योंकि भविष्य और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं। कहीं भी कोई बदलाहट होगी तो मैं वैसा ही नहीं हो सकूंगा जैसा हूं। कल ने भी मुझे बनाया, आने वाला कल भी मुझे बनाता है। यही ज्योतिष है! बीता कल ही नहीं, आने वाला कल भी; जा चुका ही नहीं, जो आ रहा है वह भी; जो सूरज पृथ्वी पर उगे वे ही नहीं, जो उगेंगे वे भी, वे भी भागीदार हैं। वे भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे हैं। क्योंकि यह जो वर्तमान का क्षण है यह हो ही न सकेगा अगर भविष्य का क्षण इसके आगे न खड़ा हो! उसके सहारे ही यह हो पाता है।
हम सब के हाथ भविष्य के कंधे पर रखे हुए हैं। हम सब के पैर अतीत के कंधों पर पड़े हुए हैं। हम सब के हाथ भविष्य के कंधों पर रखे हुए हैं। नीचे तो हमें दिखाई पड़ता है कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है वह न हो तो मैं गिर जाऊंगा। लेकिन भविष्य में मेरे जो फैले हाथ हैं, वे जो कंधों को पकड़े हुए हैं, अगर वे भी न हों तो भी मैं गिर जाऊंगा।
जब कोई व्यक्ति अपने को इतनी आंतरिक एकता में अतीत और भविष्य के बीच जुड़ा हुआ पाता है तब वह ज्योतिष को समझ पाता है। तब ज्योतिष धर्म बन जाता है, तब ज्योतिष अध्यात्म हो जाता है। और नहीं तो, वह जो नॉन एसेंशियल है, गैर-जरूरी है, उससे जुड़ कर ज्योतिष सड़क की मदारीगिरी हो जाता है, उसका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता। श्रेष्ठतम विज्ञान भी जमीन पर पड़ कर धूल की कीमत के हो जाते हैं। हम उनका क्या उपयोग करते हैं इस पर सारी बात निर्भर है। इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्का दे रहा हूं कि आपको यह खयाल में आ सके कि सब संयुक्त है--संयुक्तता, इस जगत का एक परिवार होना या एक आर्गेनिक बॉडी होना, एक शरीर की तरह होना।
मैं सांस लेता हूं तो पूरा शरीर प्रभावित होता है। सूरज सांस लेता है तो पृथ्वी प्रभावित होती है। और दूर के महासूर्य हैं, वे भी कुछ करते हैं तो पृथ्वी प्रभावित होती है। और पृथ्वी प्रभावित होती है तो हम प्रभावित होते हैं। सब चीज, छोटा सा रोआं तक महान सूर्यों के साथ जुड़ कर कंपता है, कंपित होता है। यह खयाल में आ जाए तो हम सारभूत ज्योतिष में प्रवेश कर सकें। और असारभूत ज्योतिष की जो व्यर्थताएं हैं उनसे भी बच सकें।
क्षुद्रतम बातें हम ज्योतिष से जोड़ कर बैठ गए हैं। अति क्षुद्र! जिनका कहीं भी कोई मूल्य नहीं है। और उनको जोड़ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है। जैसे हमने जोड़ रखा है कि एक आदमी गरीब पैदा होगा या एक आदमी अमीर पैदा होगा तो इसका संबंध ज्योतिष से होगा। नहीं, गैर-जरूरी बात है। अगर आप नहीं जानते हैं तो ज्योतिष से संबंध जुड़ा रहेगा; अगर आप जान लेते हैं तो आपके हाथ में आ जाएगा।
एक बहुत मीठी कहानी आपको कहूं तो खयाल में आए। जिंदगी ऐसा ही बैलेंस है, ऐसा ही संतुलन है। मोहम्मद का एक शिष्य है, अली। और अली मोहम्मद से पूछता है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्य स्वतंत्र है अपने कृत्य में या परतंत्र! बंधा है कि मुक्त! मैं जो करना चाहता हूं वह कर सकता हूं या नहीं कर सकता हूं!
सदा से आदमी ने यह पूछा है। क्योंकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ, तो फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, ईमानदार बनो, नासमझी है! एक आदमी अगर चोर होने को ही बंधा है, तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो, नासमझी है! या फिर यह हो सकता है कि एक आदमी के भाग्य में बदा है कि वह यही समझाता रहे कि चोरी न करो--जानते हुए कि चोर चोरी करेगा, बेईमान बेईमानी करेगा, असाधु असाधु होगा, हत्या करने वाला हत्या करेगा, लेकिन अपने भाग्य में यह बदा है कि अपन लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो!
एब्सर्ड है! अगर सब सुनिश्चित है तो समस्त शिक्षाएं बेकार हैं; सब प्रोफेट और सब पैगंबर और सब तीर्थंकर व्यर्थ हैं। महावीर से भी लोग पूछते हैं, बुद्ध से भी लोग पूछते हैं कि अगर होना है, वही होना है, तो आप समझा क्यों रहे हैं? किसलिए समझा रहे हैं?
मोहम्मद से भी अली पूछता है कि आप क्या कहते हैं?
अगर महावीर से पूछा होता अली ने तो महावीर ने जटिल उत्तर दिया होता। अगर बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही होती। लेकिन मोहम्मद ने वैसा उत्तर दिया जो अली की समझ में आ सकता था। कई बार मोहम्मद के उत्तर बहुत सीधे और साफ हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े-लिखे हैं, ग्रामीण हैं, उनके उत्तर सीधे और साफ होते हैं। जैसे कबीर के, या नानक के, या मोहम्मद के, या जीसस के। बुद्ध और महावीर के और कृष्ण के उत्तर जटिल हैं। वह संस्कृति का मक्खन है। जीसस की बात ऐसी है जैसे किसी ने लट्ठ सिर पर मार दिया हो। कबीर तो कहते ही हैं: कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए बाजार में खड़े हैं! कोई आए हम उसका सिर खोल दें!
मोहम्मद ने कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं कही। मोहम्मद ने कहा, अली, एक पैर उठा कर खड़ा हो जा! अली ने कहा कि हम पूछते हैं कि कर्म करने में आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र! मोहम्मद ने कहा, तू पहले एक पैर उठा! अली बेचारा एक पैर--बायां पैर--उठा कर खड़ा हो गया। मोहम्मद ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले। अली ने कहा, आप क्या बातें करते हैं! तो मोहम्मद ने कहा कि अगर तू चाहता पहले तो दायां भी उठा सकता था। अब नहीं उठा सकता। तो मोहम्मद ने कहा कि एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र है। लेकिन एक पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता है।
वह जो नॉन एसेंशियल हिस्सा है हमारी जिंदगी का, जो गैर-जरूरी हिस्सा है, उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने को स्वतंत्र हैं। लेकिन ध्यान रखना, उसमें उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्से में बंधन बन जाते हैं। वह जो बहुत जरूरी है वहां भी फंसाव पैदा हो जाता है। गैर-जरूरी बातों में पैर उठाते हैं और जरूरी बातों में फंस जाते हैं।
मोहम्मद ने कहा कि तू उठा सकता था पहला पैर भी, दायां भी उठा सकता था, कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसलिए अब दायां उठाने में असमर्थता हो गई। आदमी की सीमाएं हैं। सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता सीमाओं के बाहर नहीं है।
तो बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिंतन का कि अगर आदमी पूरी तरह परतंत्र है, जैसा ज्योतिषी साधारणतः कहते हुए मालूम पड़ते हैं। साधारण ज्योतिषी कहते हुए मालूम पड़ते हैं कि सब सुनिश्चित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा। तो फिर सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी, बुद्धिवादी कहते हैं कि सब स्वच्छंद है, कुछ बंधा हुआ नहीं है, कुछ होने का निश्चित नहीं है, सब अनिश्चित है। तो जिंदगी एक केआस और एक अराजकता और एक स्वच्छंदता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं, हत्या करूं और परमात्मा मिल जाए। क्योंकि जब कुछ भी बंधा हुआ नहीं है और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और जब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है...।
मुल्ला का फिर मुझे खयाल आता है। मुल्ला नसरुद्दीन एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है। और एक आदमी मस्जिद के ऊपर से गिर पड़ा। नमाज या अजान पढ़ने चढ़ा था मीनार पर, ऊपर से गिर पड़ा। मुल्ला के कंधे पर गिरा। मुल्ला की कमर टूट गई। अस्पताल में मुल्ला भर्ती किए गए, उनके शिष्य उनको मिलने गए। और शिष्यों ने कहा, मुल्ला, इससे क्या मतलब निकलता है? हाऊ डू यू इंटरप्रीट इट? इस घटना की व्याख्या क्या है? क्योंकि मुल्ला हर घटना से व्याख्या निकालता था।
मुल्ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होता है कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी सैद्धांतिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई, कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है--वह इसके ऊपर सवार हो गया था ऊपर से--हम मर गए! न हम अजान पढ़ने चढ़े, न हम मीनार पर चढ़े। हम अपने घर लौट रहे थे, हमारा कोई संबंध ही न था। इसलिए, मुल्ला ने कहा, आज से सब सिद्धांत की बातचीत बंद! कुछ भी हो सकता है! कुछ भी हो सकता है, कोई कानून नहीं है, अराजकता है। नाराज था। स्वाभाविक था, उसकी कमर टूट गई थी।
दो विकल्प सीधे रहे हैं। एक विकल्प तो यह है कि ज्योतिषी साधारणतः जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्योतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्योतिषी हो और चाहे मोरारजी देसाई का ज्योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क छाप ही है ज्योतिषी, जिससे कोई नॉन एसेंशियल पूछने जाता है कि इलेक्शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे? जैसे कि आपके इलेक्शन से चांदत्तारों का कोई लेना-देना है। वह कहता है, सब बंधा हुआ है; कुछ इंच भर यहां-वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है।
और दूसरी तरफ तर्कवादी है, बुद्धिवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है, सांयोगिक है, चांस है, कोइंसीडेंस है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां नियम है। क्योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरह आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी धर्म और ईश्वर को और आत्मा को तर्क से इनकार तो कर लेता है, लेकिन कभी महावीर की प्रसन्नता को उपलब्ध नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते हैं जिससे उनकी प्रसन्नता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते हैं जिससे उनकी समाधि निकलती है। और कृष्ण कुछ करते हैं जिससे उनकी बांसुरी के स्वर अलग हैं।
स्थिति तीसरी है। और तीसरी स्थिति यह है कि जो बिलकुल सारभूत है, जो अंतरतम है, वह बिलकुल सुनिश्चित है। जितना हम अपने केंद्र की तरफ आते हैं उतना निश्चय के करीब आते हैं। जितना हम अपनी परिधि की तरफ, सरकमफेरेंस की तरफ जाते हैं, उतना संयोग के करीब जाते हैं। जितना हम बाहर की घटना की बात कर रहे हैं उतनी सांयोगिक बात है। जितनी हम भीतर की बात कर रहे हैं उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्चित बात हो जाती है। दोनों के बीच में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते हैं। जहां जानने वाला आदमी विकल्प चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्य है। जो अंधेरा, जो संयोग उसको पकड़ा देता है।
तीन बातें हुईं। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्चित है। उसे जानना सारभूत ज्योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है जहां सब अनिश्चित है। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र है जो दोनों के बीच में है। उसे जान कर आदमी, जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है, जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर और परिधि और केंद्र के मध्य में आदमी इस भांति जीये कि केंद्र पर पहुंच पाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जीये कि केंद्र पर कभी न पहुंच पाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।
जैसे एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी, ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा, दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुश्किल हो जाएगा। करने के बाद बचना मुश्किल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्यक्तित्व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित्त डोल रहा है। अगर वह न कर दे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है।
तो उस ज्योतिष की तरफ, जो हमारे जीवन का सारभूत है, कुछ बातें मैंने कही हैं। आज मैंने एक बात आपसे कही और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ हैं। सूर्य से जन्मती है पृथ्वी, पृथ्वी से जन्मते हैं हम। हम अलग नहीं हैं, हम जुड़े हैं। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्ते हैं। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह हमारे पत्तों के रोएं-रोएं, रेशे-रेशे तक फैल जाता है और कंपित कर जाता है। यदि यह खयाल में हो तो हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्ध हो सकते हैं। तब हमें स्वयं की अस्मिता और अहंकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है।
और ज्योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्योतिष गलत है तो फिर अहंकार के अतिरिक्त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्योतिष सही है तो जगत सही है और मैं गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं, एक हिस्सा ही हूं; और कितना नाचीज टुकड़ा, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती। अगर ज्योतिष सही है तो मैं नहीं हूं; शक्तियों का एक प्रवाह है, उसी में एक छोटी लहर मैं हूं। किसी बड़ी लहर पर सवार कभी-कभी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं भी हूं। वह बड़ी लहर का खयाल नहीं रह जाता, और बड़ी लहर भी किसी सागर पर सवार है उसका तो बिलकुल खयाल नहीं रह जाता।
नीचे से सागर हाथ अलग कर लेता है, बड़ी लहर बिखरने लगती है; बड़ी लहर बिखरती है, मैं खो जाता हूं। अकारण दुख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं, क्योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि हूं। अगर उसी वक्त देख लेता कि मैं नहीं हूं, बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। सागर की मर्जी उठता हूं, सागर की मर्जी खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव-दशा बन जाती कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्सा हूं, तो कोई दुख न था। हां, वह तथाकथित सुख भी फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते हैं। मैंने जीता, मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ, मैं टूट गया, मैं नष्ट हो गया, हार गया, पराजित हुआ, वह दुख भी नहीं रह जाएगा। और जब ये दोनों सुख और दुख नहीं रह जाते हैं तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते हैं जहां आनंद है।
ज्योतिष आनंद का द्वार बन जाता है, अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है, हमारी ईगो को हटा देता है। लेकिन जब हम बाजार में सड़क पर ज्योतिषी के पास जाते हैं तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछने, कि घाटा तो नहीं लगेगा? यह लाटरी मिल जाएगी? नहीं मिलेगी? यह धंधा हाथ में लेते हैं, सफलता निश्चित है? अहंकार के लिए हम पूछने जाते हैं। और मजा यह है कि ज्योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है। ज्योतिष का अर्थ ही यह है कि आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो, ब्रह्मांड है। विराट शक्तियों का प्रभाव है, आप कुछ भी नहीं हो।
इस ज्योतिष की तरफ खयाल आए, और वह तभी आ सकता है जब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति यह सारा का सारा संयुक्त और जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए हैं तो फिर हमको पता चलेगा कि सूर्य और महासूर्यों से जुड़ा हुआ है।
कोई चार अरब सूर्य हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन सभी सूर्यों का जन्म किसी महासूर्य से हुआ है। अब तक हमें उसका कोई अंदाज नहीं वह कहां होगा। जैसे पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और साथ ही सूरज का चक्कर लगाती है, ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक-ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्या है जिसका सूरज चक्कर लगा रहा है। विराट चक्कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा का पूरा सौर परिवार भी किसी और महाबिंदु के चक्कर में संलग्न है।
मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि इस जगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही हैं। प्रत्येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वे दोनों मिल कर किसी और बड़े की परिक्रमा कर रहे हैं। फिर वे तीनों मिल कर और किसी की परिक्रमा कर रहे हैं। वह जो अल्टीमेट है जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे हैं, उसको ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है--उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है।
ध्यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्य और शांत है। वह धुरी, वह कील जिस पर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है, जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिकुड़ता है।
हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है, फिर बिखर जाती है; ऐसे ही यह पूरा जगत खिलता है, फैलता है, एक्सपैंड होता है, फिर प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। जैसे दिन होता है और रात होती है, ऐसे ही सारे जगत का दिन है और फिर सारे जगत की रात हो जाती है। जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्ष की एक लय है, नब्बे वर्ष की एक लय है। ऐसा हिंदू विचार का खयाल है कि अरबों-खरबों वर्ष की भी एक लय है। उस लय में जगत उठता है, जवान होता है। पृथ्वियां पैदा होती हैं, चांदत्तारे फैलते हैं, बस्तियां बसती हैं। लोग जन्मते हैं, करोड़ों-करोड़ों प्राणी पैदा होते हैं। और कोई एक अकेली पृथ्वी पर हो जाते हैं, ऐसा नहीं।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन होना चाहिए, कम से कम! यह मिनिमम है, इतना तो होगा ही, इससे ज्यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेली पृथ्वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार ग्रहों पर, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। अनंत फैलाव है। फिर सब सिकुड़ जाता है।
यह पृथ्वी सदा नहीं थी, यह सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था, सदा नहीं होऊंगा। वैसे ही यह पृथ्वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था, सदा नहीं होगा। ये चांदत्तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगे। इनके होने और न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी कहीं एक पहिए की किसी धुरी पर न होने जैसे कहीं हैं। और अगर हम सोचते हों कि हम अलग हैं तो हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे कोई आदमी ट्रेन में बैठा हो...।
मैंने सुना है कि एक आदमी एक हवाई जहाज में सवार हुआ। और जल्दी पहुंच जाए इसलिए तेजी से हवाई जहाज के भीतर चलने लगा--जल्दी पहुंच जाने के खयाल से! स्वाभाविक तर्क है कि अगर जल्दी चलिएगा तो जल्दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्या कर रहे हैं? उसने कहा कि मैं थोड़ा जल्दी में हूं।
जमीन पर उसका जो तर्क था--वह पहली दफे ही हवाई जहाज में सवार हुआ था--जमीन पर वह जानता था कि जल्दी चलिए तो जल्दी पहुंच जाते हैं। हवाई जहाज पर भी वह जल्दी चल रहा था, इसका बिना खयाल किए कि उसका चलना अब इररेलेवेंट है, अब असंगत है। अब हवाई जहाज चल ही रहा है। वह चल कर सिर्फ अपने को थका ले सकता है; जल्दी नहीं पहुंचेगा, यह हो सकता है कि पहुंचते-पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आंख बंद करके लेट जाना चाहिए।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं जो इस जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है, जल्दी नहीं है। मेरी जल्दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं इस विराट की लयबद्धता में एक बना रहूं, वही काफी है, वही आनंदपूर्ण है।
ज्योतिष के लिए मैं इसीलिए आपसे इतनी बातें कहा हूं। यह खयाल में आ जाए तो ज्योतिष आपके लिए अध्यात्म का द्वार सिद्ध हो सकता है।
और वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं एम्पैथी का। जो चीजें एक से ही पैदा होती हैं उनके भीतर एक अंतर-समानुभूति होती है। सूर्य से पृथ्वी पैदा होती है, पृथ्वी से हम सबके शरीर निर्मित होते हैं। थोड़ा ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है। सूर्य पर जो भी घटित होता है वह हमारे रोम-रोम में स्पंदित होता है। होगा ही। क्योंकि हमारा रोम-रोम भी सूर्य से ही निर्मित है। सूर्य इतना दूर दिखाई पड़ता है, इतना दूर नहीं है। हमारे रक्त के एक-एक कण में और हड्डी के एक-एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है। हम सूर्य के ही टुकड़े हैं। और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते हों तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं--एम्पैथी है, समानुभूति है।
समानुभूति को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है, तो ज्योतिष के एक आयाम में प्रवेश हो सकेगा।
कल मैंने जुड़वां बच्चों की बात आपसे की। अगर एक ही अंडे से पैदा हुए दो बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया जाए--और इस तरह के बहुत से प्रयोग पिछले पचास वर्षों में किए गए हैं। एक ही अंडज जुड़वां बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया गया है, फिर दोनों कमरों में एक साथ घंटी बजाई गई है और दोनों बच्चों को कहा गया है, उनको जो पहला खयाल आता हो वे उसे कागज पर लिख लें, या जो पहला चित्र उनके दिमाग में आता हो वे उसे कागज पर बना लें।
और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर बीस चित्र बनवाए गए हैं दोनों बच्चों से तो उसमें नब्बे प्रतिशत दोनों बच्चों के चित्र एक जैसे हैं। उनके मन में जो पहली विचारधारा पैदा होती है, जो पहला शब्द बनता है या जो पहला चित्र बनता है, ठीक उसके ही करीब वैसा ही विचार और वैसा ही शब्द दूसरे जुड़वां बच्चे के भीतर भी बनता और निर्मित होता है।
इसे वैज्ञानिक कहते हैं एम्पैथी। इन दोनों के बीच इतनी समानता है कि ये एक से प्रतिध्वनित होते हैं। इन दोनों के भीतर अनजाने मार्गों से जैसे जोड़ है, कोई कम्युनिकेशन है।
सूर्य और पृथ्वी के बीच ऐसा ही कम्युनिकेशन है, ऐसा ही संवाद है प्रतिपल। और पृथ्वी और मनुष्य के बीच भी इसी तरह का संवाद है प्रतिपल। तो सूर्य, पृथ्वी और मनुष्य, उन तीनों के बीच निरंतर संवाद है, एक निरंतर डायलाग है। लेकिन वह जो संवाद है, डायलाग है, वह बहुत गुह्य है और बहुत आंतरिक है और बहुत सूक्ष्म है। उसके संबंध में थोड़ी सी बातें समझेंगे तो खयाल में आएगा।
अमरीका में एक रिसर्च सेंटर है--ट्री रिंग रिसर्च सेंटर। वृक्षों में जो, वृक्ष आप काटें तो वृक्ष के तने में आपको बहुत से रिंग्स, बहुत से वर्तुल दिखाई पड़ेंगे। फर्नीचर पर जो सौंदर्य मालूम पड़ता है वह उन्हीं वर्तुलों के कारण है। पचास वर्ष से यह रिसर्च केंद्र, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं उन पर काम कर रहा है। तो प्रोफेसर डगलस अब उसके डायरेक्टर हैं, जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं, चक्र बन जाते हैं, उन पर ही पूरा व्यय किया है। बहुत से तथ्य हाथ लगे हैं। पहला तथ्य तो सभी को ज्ञात है साधारणतः कि वृक्ष की उम्र उसमें बने हुए रिंग्स के द्वारा जानी जा सकती है, जानी जाती है। क्योंकि प्रतिवर्ष एक रिंग वृक्ष में निर्मित होता है। एक छाल वृक्ष छोड़ देता है, अपनी चमड़ी छोड़ देता है, और एक रिंग निर्मित हो जाता है। वृक्ष की कितनी उम्र है, उसके भीतर कितने रिंग बने हैं, इनसे तय हो जाता है। अगर वह पचास साल पुराना है, उसने पचास पतझड़ देखे हैं, तो पचास रिंग उसके तने में निर्मित हो जाते हैं। और हैरानी की बात यह है कि इन तनों पर जो रिंग निर्मित होते हैं वे मौसम की भी खबर देते हैं!
अगर मौसम बहुत गर्म और गीला रहा हो तो जो रिंग है वह चौड़ा निर्मित होता है। अगर मौसम बहुत सर्द और सूखा रहा हो तो जो रिंग है वह बहुत संकरा निर्मित होता है। हजारों साल पुरानी लकड़ी को काट कर पता लगाया जा सकता है कि उस वर्ष जब यह रिंग बना था तो मौसम कैसा था। बहुत वर्षा हुई थी या नहीं हुई थी। सूखा पड़ा था या नहीं पड़ा था। अगर बुद्ध ने कहा है कि इस वर्ष बहुत वर्षा हुई, तो जिस बोधिवृक्ष के नीचे वे बैठे थे वह भी खबर देगा कि वर्षा हुई कि नहीं हुई। बुद्ध से भूल-चूक हो जाए, वह जो वृक्ष है, बोधिवृक्ष, उससे भूल-चूक नहीं होती। उसका रिंग बड़ा होगा, छोटा होगा।
डगलस इन वर्तुलों की खोज करते-करते एक ऐसी जगह पहुंच गया जिसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। उसने अनुभव किया कि प्रत्येक ग्यारहवें वर्ष पर रिंग जितना बड़ा होता है उतना फिर कभी बड़ा नहीं होता। और वह ग्यारह वर्ष वही वर्ष है जब सूरज पर सर्वाधिक गतिविधि होती है। हर ग्यारहवें वर्ष पर सूरज में एक रिद्म, एक लयबद्धता है, हर ग्यारह वर्ष पर सूरज बहुत सक्रिय हो जाता है। उस पर रेडियो एक्टिविटी बहुत तीव्र होती है। सारी पृथ्वी पर उस वर्ष सभी वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं। एकाध जगह नहीं, एकाध जंगल में नहीं--सारी पृथ्वी पर, सारे वृक्ष उस वर्ष उस रेडियो एक्टिविटी से अपनी रक्षा करने के लिए मोटा रिंग बनाते हैं। वह जो सूरज पर तीव्र घटना घटती है ऊर्जा की, उससे बचाव के लिए उनको मोटी चमड़ी बनानी पड़ती है उस वर्ष, हर ग्यारह वर्ष।
इससे वैज्ञानिकों में एक नया शब्द और एक नयी बात शुरू हुई। मौसम सब जगह अलग होते हैं। यहां सर्दी है, कहीं गर्मी है, कहीं वर्षा है, कहीं शीत है--सब जगह मौसम अलग हैं। इसलिए अब तक कभी पृथ्वी का मौसम, क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ--ऐसा कोई शब्द प्रयोग नहीं होता था। लेकिन अब डगलस ने इस शब्द का प्रयोग करना शुरू किया है--क्लाइमेट ऑफ दि अर्थ। ये सब छोटे-मोटे फर्क तो हैं ही, लेकिन पूरी पृथ्वी पर भी सूरज के कारण एक विशेष मौसम चलता है। जो हम नहीं पकड़ पाते, लेकिन वृक्ष पकड़ते हैं। हर ग्यारहवें वर्ष पर वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं, फिर रिंग छोटे होते जाते हैं। फिर पांच साल के बाद बड़े होने शुरू होते हैं, फिर ग्यारहवें साल पर जाकर पूरे बड़े हो जाते हैं।
अगर वृक्ष इतने संवेदनशील हैं और सूरज पर होती हुई कोई भी घटना को इतनी व्यवस्था से अंकित करते हैं, तो क्या आदमी के चित्त में भी कोई पर्त होगी, क्या आदमी के शरीर में भी कोई संवेदना का सूक्ष्म रूप होगा, क्या आदमी भी कोई रिंग और वर्तुल निर्मित करता होगा अपने व्यक्तित्व में?
अब तक साफ नहीं हो सका। अभी तक वैज्ञानिकों को साफ नहीं है कोई बात कि आदमी के भीतर क्या होता है। लेकिन यह असंभव मालूम पड़ता है कि जब वृक्ष भी सूर्य पर घटती घटनाओं को संवेदित करते हों तो आदमी किसी भांति संवेदित न करता हो।
ज्योतिष, जो जगत में कहीं भी घटित होता है वह मनुष्य के चित्त में भी घटित होता है, इसकी ही खोज है। इस पर हम पीछे बात करेंगे कि मनुष्य भी वृक्षों जैसी ही खबरें अपने भीतर लिए चलता है, लेकिन उसे खोलने का ढंग उतना आसान नहीं है जितना वृक्ष को खोलने का ढंग आसान है। वृक्ष को काट कर जितनी सुविधा से हम पता लगा लेते हैं उतनी सुविधा से आदमी को काट कर पता नहीं लगा सकते हैं। आदमी को काटना सूक्ष्म मामला है। और आदमी के पास चित्त है, इसलिए आदमी का शरीर उन घटनाओं को नहीं रिकार्ड करता, चित्त रिकार्ड करता है। वृक्षों के पास चित्त नहीं है, इसलिए शरीर ही उन घटनाओं को रिकार्ड करता है।
एक और बात इस संबंध में खयाल ले लेने जैसी है। जैसा मैंने कहा कि प्रति ग्यारह वर्ष में सूरज पर तीव्र रेडियो एक्टिविटी, तीव्र वैद्युतिक तूफान चलते हैं, ऐसा प्रति ग्यारह वर्ष पर एक रिद्म है। ठीक ऐसा ही एक दूसरा बड़ा रिद्म भी पता चलना शुरू हुआ है, वह है नब्बे वर्ष का, सूरज के ऊपर। और वह और हैरान करने वाला है। और यह जो मैं कह रहा हूं ये सब वैज्ञानिक तथ्य हैं। ज्योतिषी इस संबंध में कुछ नहीं कहते हैं। लेकिन मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि इनके आधार पर ज्योतिष को वैज्ञानिक ढंग से समझना आपके लिए आसान हो सकेगा। नब्बे वर्ष का एक दूसरा वर्तुल है जो कि अनुभव किया गया है। उसके अनुभव की कथा बड़ी अदभुत है।
फैरोह ने इजिप्त में आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिकों को कहा कि नील नदी में जब भी पानी घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्योरा रखा जाए। और अकेली नील एक ऐसी नदी है, जिसकी चार हजार वर्ष की बायोग्राफी है। और किसी नदी की कोई बायोग्राफी नहीं है। उसकी जीवन-कथा है पूरी। कब उसमें इंच भर पानी बढ़ा है, तो उसका पूरा रिकार्ड है--चार हजार वर्ष, फैरोह के जमाने से लेकर आज तक।
फैरोह का अर्थ होता है सूर्य, इजिप्त की भाषा में। फैरोह, जो इजिप्त का सम्राट अपना नाम रखता था, वह सूर्य के आधार पर था। और इजिप्त में ऐसा खयाल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। तो फैरोह, जो कि सूर्य का भक्त था, उसने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए। सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है, लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में भी पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकेगा। तो चार हजार साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंच भर पानी कब बढ़ा, इंच भर कब कम हुआ; कब उसमें पूर आया, कब पूर नहीं आया; कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी बही, इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच-इंच उपलब्ध है।
इजिप्त के एक विद्वान तस्मान ने पूरे नील की कथा लिखी। और अब सूर्य के संबंध में वे बातें ज्ञात हो गईं जो फैरोह के वक्त ज्ञात नहीं थीं और जिनके लिए फैरोह ने कहा था प्रतीक्षा करना! इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह सूरज से संबंधित है। और नब्बे वर्ष की रिद्म का पता चलता है। हर नब्बे वर्ष में सूर्य पर एक अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम मृत्यु कह सकते हैं--या जन्म कह सकते हैं।
ऐसा समझ लें कि सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और पैंतालीस वर्ष तक बूढ़ा होता है। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते हैं वे पैंतालीस वर्ष तक जो जवानी की तरफ बढ़ते हैं, क्लाइमेक्स की तरफ जाते हैं, सूरज जैसे जवान होता चला जाता है। और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है, उसकी उम्र जैसे नीचे गिरने लगती है, और नब्बे वर्ष में सूर्य बिलकुल बूढ़ा हो जाता है। नब्बे वर्ष में जब सूर्य बूढ़ा होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों का संबंध नब्बे वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता है। वह बड़ी भारी घटना है; क्योंकि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वी उससे कंपित हो जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन जब पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु भूकंपों से भर जाती है तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ नहीं होता होगा? पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु, जब सूरज पर परिवर्तन होते हैं तो कंपित हो जाती है, भूकंपों से भर जाती है, तो आदमी जैसी छोटी सी काया में कुछ भी न होता होगा! ज्योतिषी सिर्फ यही पूछते रहे हैं। वे कहते हैं, यह असंभव है। पता हो तुम्हें या न पता हो, लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती।
पैंतालीस वर्ष जब सूरज जवान होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होते हैं उनका स्वास्थ्य अदभुत रूप से अच्छा होगा। और जब पैंतालीस वर्ष सूरज बूढ़ा होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होंगे उनका स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं हो पाता। जब सूरज खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चे पैदा होते हैं उनकी हालत ठीक वैसी है जैसे पूरब को नाव ले जानी हो और पश्चिम को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डांड चलाने पड़ते हैं, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते। फिर पाल खोल कर नाव नहीं ले जाई जा सकती, क्योंकि उलटे बहना पड़ता है। जब सूरज ही बूढ़ा होता है, सूरज जो कि प्राण है सारे सौर परिवार का, तब जिसको भी जवान होना है उसे उलटी धारा में तैरना पड़ता है--हवा के खिलाफ। उसके लिए संघर्ष भारी है। जब सूरज ही जवान हो रहा होता है तो पूरा सौर परिवार शक्तियों से भरा होता है और उठान की तरफ होता है। तब जो पैदा होता है, वह जैसे पाल वाली नाव में बैठ गया। पूरब की तरफ हवाएं बह रही हैं, उसे डांड भी नहीं चलानी है, पतवार भी नहीं चलानी है, श्रम भी नहीं करना है, नाव खुद बह जाएगी। पाल खोल देना है, हवाएं नाव को ले जाएंगी।
इस संबंध में अब वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्था में जाता है तब पृथ्वी पर कम से कम बीमारियां होती हैं। और जब सूरज अपने उतार पर होता है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती हैं। पृथ्वी पर पैंतालीस साल बीमारियों के होते हैं और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते हैं।
नील ठीक चार हजार वर्षों में हर नब्बे वर्ष में इसी तरह जवान और बूढ़ी होती रही है। जब सूरज जवान होता है तो नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाता है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढ़ा होने लगता है, तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, वह शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है।
आदमी इस विराट जगत में कुछ अलग-थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है।
अब तक हमने जो भी श्रेष्ठतम घड़ियां बनाई हैं वे कोई भी उतनी टु दि टाइम, उतना ठीक से समय नहीं बतातीं जितनी पृथ्वी बताती है। पृथ्वी अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्कर पूरा करती है। उसी के आधार पर चौबीस घंटे का हमने हिसाब तैयार किया हुआ है और हमने घड़ी बनाई हुई है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह ठीक तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्र पूरा करती है। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं समझा गया था कि पृथ्वी कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना था कि हमारे पास जांचने के बहुत ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी।
लेकिन जब नब्बे वर्ष का वर्तुल पूरा होता है सूर्य का तो पृथ्वी की घड़ी एकदम डगमगा जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्यारह वर्ष में जब सूरज पर उत्पात होता है तब भी पृथ्वी डगमगा जाती है, उसकी घड़ी गड़बड़ हो जाती है। जब भी पृथ्वी रोज अपनी यात्रा में नये-नये प्रभावों के अंतर्गत आती है, जब भी कोई नया प्रभाव, कोई नया कास्मिक इनफ्लुएंस, कोई महातारा करीब हो जाता है--और करीब का मतलब, इस महा आकाश में बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं--जरा सा करीब आ जाता है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है, क्योंकि जब हम कहते हैं जरा सा करीब आ जाता है तो हम सोचते हैं कि शायद जैसे हमारे पास कोई आदमी आ गया। नहीं, फासले बहुत बड़े हैं। उन फासलों में जरा सा अंतर पड़ जाता है, जो कि हमें कहीं पता भी नहीं चलेगा, तो भी पृथ्वी की कील डगमगा जाती है।
पृथ्वी को हिलाने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है--इंच भर हिलाने के लिए भी। तो महाशक्तियां जब गुजरती हैं पृथ्वी के पास से, तभी वह हिल पाती है। लेकिन वे महाशक्तियां जब पृथ्वी के पास से गुजरती हैं तो हमारे पास से भी गुजरती हैं। और ऐसा नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर लगे हुए वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्य कंपित न हो। सब कंप जाता है।
लेकिन कंपन इतने सूक्ष्म हैं कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि पृथ्वी कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण हैं। सेकेंड के हजारवें हिस्से में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते हैं। लेकिन आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं हैं। वह मामला और भी सूक्ष्म है। आदमी इतना सूक्ष्म है, और होना जरूरी है, अन्यथा जीना मुश्किल हो जाए। अगर चौबीस घंटे आपको चारों तरफ के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न पाएं। आप जी सकते हैं तभी जब कि आपको आस-पास के प्रभावों का कोई पता नहीं चलता।
एक और नियम है। वह नियम यह है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्ति से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है।
जैसे समझ लें कि बुखार चढ़ता है, तो अट्ठानबे डिग्री हमारी एक सीमा है। और एक सौ दस डिग्री हमारी दूसरी सीमा है। बारह डिग्री में हम जीते हैं। नब्बे डिग्री नीचे गिर जाए तापमान तो हम समाप्त हो जाते हैं। उधर एक सौ दस डिग्री के बाहर चला जाए तो हम समाप्त हो जाते हैं। लेकिन क्या आप समझते हैं, दुनिया में गर्मी बारह डिग्रियों की ही है? आदमी बारह डिग्री के भीतर जीता है। दोनों सीमाओं के इधर-उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक बैलेंस है, अट्ठानबे और एक सौ दस के बीच में उसको अपने को सम्हाले रखना है।
ठीक ऐसा बैलेंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं, आप सुन रहे हैं। अगर मैं बहुत धीमे बोलूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बोलूं और आप न सुन पाएं। लेकिन यह आपको खयाल में आ जाएगा कि बहुत धीमे बोला जाए तो सुनाई नहीं पड़ेगा, लेकिन आपको यह खयाल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएं। तो आपको कठिन लगेगा, क्योंकि जोर से बोलेंगे तब तो सुनाई पड़ेगा ही।
नहीं, वैज्ञानिक कहते हैं, हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी हम नहीं सुन पाते, उसके ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आस-पास भयंकर आवाजें गुजर रही हैं। लेकिन हम सुन नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित होता है या बिखरता है, तो भयंकर गर्जना वाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती हैं। अगर हम उनको सुन पाएं तो हम तत्काल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित हैं, क्योंकि हमारे कान सीमा में ही सुनते हैं। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है, बस उतने को सुन लेते हैं।
देखने के मामले में भी हमारी वही सीमा है। हमारी सभी इंद्रियां एक दायरे के भीतर हैं, न उसके ऊपर, न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ता है, वह आपसे ज्यादा सूंघ लेता है। उसका दायरा सूंघने का आपसे बड़ा है। जो आप नहीं सूंघ पाते, कुत्ता सूंघ लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन लेता है। उसके सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक-डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोड़ा चौंक कर खड़ा हो जाता है। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको सारी गंध आने लगें जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही हैं, तो आप विक्षिप्त हो जाएं। मनुष्य एक कैप्सूल में बंद है, उसकी सीमांत है, उसकी बाउंड्रीज हैं।
आप रेडियो लगाते हैं और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्या आप सोचते हैं, जब रेडियो लगाते हैं तब आवाज आनी शुरू होती है?
आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है, आप रेडियो लगाएं या न लगाएं। लगाते हैं तब रेडियो पकड़ लेता है, बहती तो पूरे वक्त रहती है। दुनिया में जितने रेडियो स्टेशन हैं, सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही हैं। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप रेडियो नहीं लगाते हैं तब भी गुजर रही हैं, लेकिन आपको सुनाई नहीं पड? रही हैं। आपको सुनाई नहीं पड़ रही हैं।
जगत में न मालूम कितनी ध्वनियां हैं जो चारों तरफ हमारे गुजर रही हैं। भयंकर कोलाहल है। वह पूरा कोलाहल हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। ध्यान रहे, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। वह हमारे रोएं-रोएं को स्पर्श करता है। हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन को छूता है। हमारे स्नायु-स्नायु को कंपा जाता है। वह अपना काम तो कर ही रहा है। उसका काम तो जारी है। जिस सुगंध को आप नहीं सूंघ पाते उसके अणु भी आपके चारों तरफ अपना काम तो कर ही जाते हैं। और अगर उसके अणु किसी बीमारी को लाए हैं तो वे आपको दे जाते हैं। आपकी जानकारी आवश्यक नहीं है किसी वस्तु के होने के लिए।
ज्योतिष का कहना है कि हमारे चारों तरफ ऊर्जाओं के क्षेत्र हैं, एनर्जी फील्ड्स हैं, और वे पूरे समय हमें प्रभावित कर रहे हैं। जैसा मैंने कल कहा कि जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, तो जन्म को वैज्ञानिक भाषा में हम कहें एक्सपोजर, जैसे कि फिल्म को हम एक्सपोज करते हैं कैमरे में। जरा सा शटर आप दबाते हैं, एक क्षण के लिए कैमरे की खिड़की खुलती है और बंद हो जाती है। उस क्षण में जो भी कैमरे के समक्ष आ जाता है वह फिल्म पर अंकित हो जाता है। फिल्म एक्सपोज हो गई। अब दुबारा उस पर कुछ अंकित न होगा--अंकित हो गया। और अब यह फिल्म उस आकार को सदा अपने भीतर लिए रहेगी।
जिस दिन मां के पेट में पहली दफा गर्भाधान होता है तो पहला एक्सपोजर होता है। जिस दिन मां के पेट से बच्चा बाहर आता है, जन्म लेता है, उस दिन दूसरा एक्सपोजर होता है। और ये दोनों एक्सपोजर उस संवेदनशील चित्त पर फिल्म की भांति अंकित हो जाते हैं। पूरा जगत उस क्षण में बच्चा अपने भीतर अंकित कर लेता है। और उसकी सिम्पैथीज निर्मित हो जाती हैं।
ज्योतिष इतना ही कहता है कि यदि वह बच्चा जब पैदा हुआ है तब अगर रात है...और जान कर आप हैरान होंगे कि सत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में पैदा होते हैं! यह थोड़ा हैरानी का है। क्योंकि आमतौर से पचास प्रतिशत होने चाहिए। चौबीस घंटे का हिसाब है, इसमें कोई हिसाब भी न हो, बेहिसाब भी बच्चे पैदा हों, तो बारह घंटे रात, बारह घंटे दिन, साधारण संयोग और कांबिनेशन से ठीक है पचास-पचास प्रतिशत हो जाएं! कभी भूल-चूक दो-चार प्रतिशत इधर-उधर हो। लेकिन नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में जन्म लेते हैं; दस प्रतिशत बच्चे मुश्किल से जन्म दिन में लेते हैं। अकारण नहीं हो सकती यह बात, इसके पीछे बहुत कारण हैं।
समझें, एक बच्चा रात में जन्म लेता है। तो उसका जो एक्सपोजर है, उसके चित्त की जो पहली घटना है इस जगत में अवतरण की, वह अंधेरे से संयुक्त होती है, प्रकाश से संयुक्त नहीं होती। यह सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं, क्योंकि बात तो और विस्तीर्ण है। सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। उसके चित्त पर जो पहली घटना है वह अंधकार है। सूर्य अनुपस्थित है। सूर्य की ऊर्जा अनुपस्थित है। चारों तरफ जगत सोया हुआ है। पौधे अपनी पत्तियों को बंद किए हुए हैं। पक्षी अपने पंखों को सिकोड़ कर आंखें बंद किए हुए अपने घोंसलों में छिप गए हैं। सारी पृथ्वी पर निद्रा है। हवा के कण-कण में चारों तरफ नींद है। सब सोया हुआ है। जागा हुआ कुछ भी नहीं है। यह पहला इंपैक्ट है बच्चे पर।
अगर हम बुद्ध और महावीर से पूछें तो वे कहेंगे कि अधिक बच्चे इसलिए रात में जन्म लेते हैं क्योंकि अधिक आत्माएं सोई हुई हैं, एस्लीप हैं। दिन को वे नहीं चुन सकते पैदा होने के लिए। दिन को चुनना कठिन है। और हजार कारण हैं, और हजार कारण हैं, एक कारण महत्वपूर्ण यह भी है--अधिकतम लोग सोए हुए हैं, अधिकतम लोग तंद्रित हैं, अधिकतम लोक निद्रा में हैं, अधिकतम लोग आलस्य में, प्रमाद में हैं। सूर्य के जागने के साथ उनका जन्म ऊर्जा का जन्म होगा, सूर्य के डूबे हुए अंधेरे की आड़ में उनका जन्म नींद का जन्म होगा।
रात में एक बच्चा पैदा हो रहा है तो एक्सपोजर एक तरह का होने वाला है। जैसे कि हमने अंधेरे में एक फिल्म खोली हो या प्रकाश में एक फिल्म खोली हो, तो एक्सपोजर भिन्न होने वाले हैं। एक्सपोजर की बात थोड़ी और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि वह ज्योतिष के बहुत गहराइयों से संबंधित है।
जो वैज्ञानिक एक्सपोजर के संबंध में खोज करते हैं वे कहते हैं कि एक्सपोजर की घटना बहुत बड़ी है, छोटी घटना नहीं है। क्योंकि जिंदगी भर वह आपका पीछा करेगी। एक मुर्गी का बच्चा पैदा होता है। पैदा हुआ कि भागने लगता है मुर्गी के पीछे। हम कहते हैं कि मां के पीछे भाग रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं। मां से कोई संबंध नहीं है; एक्सपोजर! हम कहते हैं, अपनी मां के पीछे भाग रहा है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं! पहले हम भी ऐसा ही सोचते थे कि मां के पीछे भाग रहा है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और जब सैकड़ों प्रयोग किए गए तो बात सही हो गई है।
वैज्ञानिकों ने सैकड़ों प्रयोग किए। मुर्गी का बच्चा जन्म रहा है, अंडा फूट रहा है, चूजा बाहर निकल रहा है, तो उन्होंने मुर्गी को हटा लिया और उसकी जगह एक रबर का गुब्बारा रख दिया। बच्चे ने जिस चीज को पहली दफा देखा वह रबर का गुब्बारा था, मां नहीं थी। आप चकित होंगे यह जान कर कि वह बच्चा एक्सपोज्ड हो गया। इसके बाद वह रबर के गुब्बारे को ही मां की तरह प्रेम कर सका। फिर वह अपनी मां को नहीं प्रेम कर सका। रबर का गुब्बारा हवा में इधर-उधर जाएगा तो वह पीछे भागेगा। उसकी मां भागती रहेगी तो उसकी फिक्र ही नहीं करेगा। रबर के गुब्बारे के प्रति वह आश्चर्यजनक रूप से संवेदनशील हो गया। जब थक जाएगा तो गुब्बारे के पास टिक कर बैठ जाएगा। गुब्बारे को प्रेम करने की कोशिश करेगा। गुब्बारे से चोंच लड़ाने की कोशिश करेगा--लेकिन मां से नहीं।
इस संबंध में बहुत काम लारेंज नाम के एक वैज्ञानिक ने किया है और उसका कहना है कि वह जो फर्स्ट मोमेंट एक्सपोजर है, वह बड़ा महत्वपूर्ण है। वह मां से इसीलिए संबंधित हो जाता है--मां होने की वजह से नहीं, फर्स्ट एक्सपोजर की वजह से। इसलिए नहीं कि वह मां है इसलिए उसके पीछे दौड़ता है; इसलिए कि वही सबसे पहले उसको उपलब्ध होती है इसलिए पीछे दौड़ता है।
अभी इस पर और काम चला है। जिन बच्चों को मां के पास बड़ा न किया जाए वे किसी स्त्री को जीवन में कभी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते--एक्सपोजर ही नहीं हो पाता। अगर एक बच्चे को उसकी मां के पास बड़ा न किया जाए तो स्त्री का जो प्रतिबिंब उसके मन में बनना चाहिए वह बनता ही नहीं। और अगर पश्चिम में आज होमोसेक्सुअलिटी बढ़ती हुई है तो उसके एक बुनियादी कारणों में वह कारण है। हेट्रोसेक्सुअल, विजातीय यौन के प्रति जो प्रेम है वह पश्चिम में कम होता चला जा रहा है। और सजातीय यौन के प्रति प्रेम बढ़ता चला जा रहा है, जो विकृति है। लेकिन वह विकृति होगी। क्योंकि दूसरे यौन के प्रति जो प्रेम है--पुरुष का स्त्री के प्रति और स्त्री का पुरुष के प्रति--वह बहुत सी शर्तों के साथ है। पहला तो एक्सपोजर जरूरी है। बच्चा पैदा हुआ है तो उसके मन पर क्या एक्सपोज हो!
अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। दुनिया में स्त्रियां तब तक सुखी न हो पाएंगी जब तक उनका एक्सपोजर मां के साथ हो रहा है। उनका एक्सपोजर पिता के साथ होना चाहिए। पहला इंपैक्ट लड़की के मन पर पिता का पड़ना चाहिए। तो ही वह किसी पुरुष को भरपूर मन से प्रेम करने में समर्थ हो पाएगी। अगर पुरुष स्त्री से जीत जाता है तो उसका कुल कारण इतना है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही मां के पास बड़े होते हैं। तो लड़के का एक्सपोजर तो बिलकुल ठीक होता है स्त्री के प्रति, लेकिन लड़की का एक्सपोजर बिलकुल ठीक नहीं होता। इसलिए जब तक दुनिया में लड़की को पिता का एक्सपोजर नहीं मिलता तब तक स्त्रियां कभी भी पुरुष के समकक्ष खड़ी नहीं हो सकेंगी--न राजनीति के द्वारा, न नौकरी के द्वारा, न आर्थिक स्वतंत्रता के द्वारा। क्योंकि मनोवैज्ञानिक अर्थों में एक कमी उनमें रह जाती है। वह अब तक की पूरी संस्कृति उस कमी को पूरा नहीं कर पाई है।
अगर यह छोटा सा गुब्बारा, या मुर्गी, या मां, इनका एक्सपोजर प्रभावी हो जाता है इतना ज्यादा कि चित्त सदा के लिए उससे निर्मित हो जाता है! ज्योतिष कहता है कि जो भी चारों तरफ मौजूद है, दि होल यूनिवर्स, वह सभी का सभी उस एक्सपोजर के क्षण में, उस चित्त के खुलने के क्षण में भीतर प्रवेश कर जाता है और जीवन भर की सिम्पैथीज और एंटीपैथीज निर्मित हो जाती हैं। उस क्षण जो नक्षत्र पृथ्वी को चारों तरफ से घेरे हुए हैं--नक्षत्र घेरे हुए हैं, उसका कुल मतलब इतना कि उस क्षण पृथ्वी के ऊपर जिन नक्षत्रों की रेडियो एक्टिविटी का प्रभाव पड़ रहा है।
अब वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रत्येक ग्रह की रेडियो एक्टिविटी अलग है। जैसे वीनस; उससे जो रेडियो सक्रिय तत्व हमारी तरफ आते हैं वे चांद के रेडियो सक्रिय तत्वों से भिन्न हैं। या जैसे ज्युपिटर; उससे जो रेडियो तत्व हम तक आते हैं वे सूर्य के रेडियो तत्वों से भिन्न हैं। क्योंकि इन प्रत्येक ग्रहों के पास अलग तरह की गैसों और अलग तरह के तत्वों का वातावरण है। उन सबसे अलग-अलग प्रभाव पृथ्वी की तरफ आते हैं। और जब एक बच्चा पैदा हो रहा है तो पृथ्वी के चारों तरफ क्षितिज को घेर कर खड़े हुए जो भी नक्षत्र हैं--ग्रह हैं, उपग्रह हैं, दूर आकाश में महातारे हैं--वे सब के सब उस एक्सपोजर के क्षण में बच्चे के चित्त पर गहराइयों तक प्रवेश कर जाते हैं। फिर उसकी कमजोरियां, उसकी ताकतें, उसका सामर्थ्य, सब सदा के लिए प्रभावित हो जाता है।
अब जैसे हिरोशिमा में एटम बम के गिरने के बाद पता चला, उसके पहले पता नहीं था। हिरोशिमा में एटम जब तक नहीं गिरा था तब तक इतना खयाल था कि एटम गिरेगा तो लाखों लोग मरेंगे; लेकिन यह पता नहीं था कि पीढ़ियों तक आने वाले बच्चे प्रभावित हो जाएंगे। हिरोशिमा और नागासाकी में जो लोग मर गए, मर गए! वह तो एक क्षण की बात थी, समाप्त हो गए। लेकिन हिरोशिमा में जो वृक्ष बच गए, जो जानवर बच गए, जो पक्षी बच गए, जो मछलियां बच गईं, जो आदमी बच गए, वे सदा के लिए प्रभावित हो गए।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि दस पीढ़ियों में हमें पूरा अंदाज लग पाएगा कि क्या-क्या परिणाम हुए। क्योंकि इनका सब कुछ रेडियो एक्टिविटी से प्रभावित हो गया। अब जो स्त्री बच गई है उसके शरीर में जो अंडे हैं वे प्रभावित हो गए। अब वे अंडे, कल उनमें से एक अंडा बच्चा बनेगा, वह बच्चा वैसा ही बच्चा नहीं होगा जैसा साधारणतः होता है। क्योंकि एक विशेष तरह की रेडियो सक्रियता उस अंडे में प्रवेश कर गई है। वह लंगड़ा हो सकता है, लूला हो सकता है, अंधा हो सकता है। उसकी चार आंखें भी हो सकती हैं, आठ हाथ भी हो सकते हैं। कुछ भी हो सकता है! अभी हम कुछ भी नहीं कह सकते कि वह कैसा होगा। उसका मस्तिष्क बिलकुल रुग्ण भी हो सकता है, प्रतिभाशाली भी हो सकता है। वह जीनियस भी पैदा हो सकता है, जैसा जीनियस कभी पैदा न हुआ हो। अभी हमें कुछ भी पता नहीं कि वह क्या होगा। इतना पक्का पता है कि जैसा होना चाहिए था साधारणतः आदमी, वैसा वह नहीं होगा।
अगर एटम...एटम बहुत छोटी ताकत है। हमारे लिए बहुत बड़ी ताकत है। एक एटम एक लाख बीस हजार आदमियों को मार पाया हिरोशिमा और नागासाकी में। वह बहुत छोटी ताकत है। सूर्य के ऊपर जो ताकत है उसका हम इससे कोई हिसाब नहीं लगा सकते। जैसे अरबों एटम बम एक साथ फूट रहे हों! उतनी रेडियो एक्टिविटी सूरज के ऊपर है। और असाधारण है यह! क्योंकि सूरज चार अरब वर्षों से तो पृथ्वी को ही गर्मी दे रहा है, और उससे पहले से है। और अभी भी वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम चार हजार वर्ष तक तो ठंडे होने की कोई संभावना नहीं है। प्रतिदिन इतनी गर्मी! और सूरज दस करोड़ मील दूर है पृथ्वी से। हिरोशिमा में जो घटना घटी उसका प्रभाव दस मील से ज्यादा दूर नहीं पड़ सका। दस करोड़ मील दूर सूरज है, चार अरब वर्षों से तो वह हमें सारी गर्मी दे रहा है, फिर भी अभी रिक्त नहीं हुआ है। पर यह सूरज कुछ भी नहीं है, इससे महासूर्य हैं, ये सब तारे हैं जो आकाश के। और इन प्रत्येक तारों से अपनी व्यक्तिगत और निजी क्षमता की सक्रियता हम तक प्रवाहित होती है।
एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, जो अंतरिक्ष में फैलती ऊर्जाओं के संबंध में अध्ययन कर रहा है, गाकलिन, उसका कहना है कि जितनी ऊर्जाएं हमें अनुभव में आ रही हैं उनमें से हम एक प्रतिशत के संबंध में भी पूरा नहीं जानते। जब से हमने कृत्रिम उपग्रह छोड? हैं पृथ्वी के बाहर, तब से उन्होंने हमें इतनी खबरें दी हैं कि हमारे पास न शब्द हैं उन खबरों को समझने के लिए, न हमारे पास विज्ञान है। और इतनी ऊर्जाएं, इतनी एनर्जीज चारों तरफ बह रही होंगी, इसकी हमें कल्पना ही नहीं थी।
इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। इस जगत में, जैसा मैंने कल कहा, लोग सोचते हैं कि ज्योतिष कोई विकसित होता हुआ विज्ञान है। मैंने आपसे कहा, हालत उलटी है।
ताजमहल अगर आपने देखा हो तो यमुना के उस पार कुछ दीवारें आपको उठी हुई दिखाई पड़ी होंगी। कहानी यह है कि शाहजहां ने मुमताज के लिए तो ताजमहल बनवाया और अपने लिए, जैसा संगमरमर का ताजमहल है, ऐसा ही अपनी कब्र के लिए संगमूसा का, काले पत्थर का महल वह यमुना के उस पार बना रहा था। लेकिन वह पूरा नहीं हो पाया। ऐसी कथा सदा से प्रचलित थी। लेकिन अभी इतिहासज्ञों ने खोज की है तो पता चला कि वह जो उस तरफ दीवारें उठी खड़ी हैं वे किसी बनने वाले महल की दीवारें नहीं हैं, वे किसी बहुत बड़े महल की, जो गिर चुका, खंडहर हैं! पर उठती दीवारें और खंडहर एक से मालूम पड़ सकते हैं। एक नये मकान की दीवार उठ रही है, अधूरी है अभी, मकान बना नहीं। हजारों साल बाद तय करना मुश्किल हो जाएगा कि यह नये मकान की बनती हुई दीवार है या किसी बने-बनाए मकान की, जो गिर चुका, उसकी बची-खुची अवशेष है, खंडहर है।
पिछले तीन-चार सौ, पांच सौ सालों से यही समझा जाता था कि वह जो दूसरी तरफ महल खड़ा हुआ है, वह शाहजहां बनवा रहा था, वह पूरा नहीं हो पाया। लेकिन अभी जो खोजबीन हुई है उससे पता चलता है कि वह महल पूरा था। और न केवल यह पता चलता है कि वह महल पूरा था, बल्कि यह भी पता चलता है कि ताजमहल शाहजहां ने खुद कभी नहीं बनवाया। वह भी हिंदुओं का बहुत पुराना महल है, जिसको सिर्फ कनवर्ट किया, जिसको सिर्फ थोड़ा सा फर्क किया। क्योंकि...और कई दफे इतनी हैरानी होती है कि जिन बातों को हम सुनने के आदी हो जाते हैं, फिर उनसे भिन्न बात को हम सोचते भी नहीं! ताजमहल जैसी एक भी कब्र दुनिया में किसी ने नहीं बनाई है। कब्र ऐसी बनाई ही नहीं जाती। कब्र ऐसी बनाई ही नहीं जाती! ताजमहल के चारों तरफ सिपाहियों के खड़े होने के स्थान हैं, बंदूकें और तोपें लगाने के स्थान हैं। कब्रों की बंदूकें और तोपें लगा कर कोई रक्षा नहीं करनी पड़ती। वह महल है पुराना, उसको सिर्फ कनवर्ट किया गया है कब्र में। वह दूसरी तरफ भी एक पुराना महल है जो गिर गया, जिसके खंडहर शेष रह गए।
ज्योतिष भी खंडहर की तरह है। वह बहुत बड़ा महल था, पूरा विज्ञान था, जो ढह गया। कोई नयी चीज नहीं है, कोई नया उठता हुआ मकान नहीं है। लेकिन जो दीवारें रह गई हैं उनसे कुछ पता नहीं चलता कि कितना बड़ा महल उसकी जगह रहा होगा। बहुत बार सत्य मिलते हैं और खो जाते हैं।
अरिस्टीकारस नाम के एक यूनानी ने जीसस से दो सौ, तीन सौ वर्ष पूर्व यह सत्य खोज निकाला था कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं है। अरिस्टीकारस का यह सूत्र, हेलियो सेंट्रिक, कि सूरज केंद्र पर है, जीसस से तीन सौ वर्ष पहले खोज निकाला गया था। लेकिन जीसस के सौ वर्ष बाद टोलिमी ने इस सूत्र को उलट दिया और पृथ्वी को फिर केंद्र बना दिया। और फिर दो हजार साल लग गए केपलर और कोपरनिकस को खोजने में वापस कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं है। दो हजार साल तक अरिस्टीकारस का सत्य दबा पड़ा रहा। दो हजार साल बाद जब कोपरनिकस ने फिर से कहा तब अरिस्टीकारस की किताबें खोजी गईं। लोगों ने कहा, यह तो हैरानी की बात है!
अमरीका कोलंबस ने खोजा, ऐसा पश्चिम के लोग कहते हैं। एक बहुत प्रसिद्ध मजाक प्रचलित है। आस्कर वाइल्ड अमरीका गया हुआ था। उसकी मान्यता थी कि अमरीका और भी बहुत पहले खोजा जा चुका है। और यह सच है। यह सच्चाई है कि अमरीका बहुत दफे खोजा जा चुका और पुनः-पुनः खो गया। उससे संबंध-सूत्र टूट गए। एक व्यक्ति ने आस्कर वाइल्ड को पूछा कि हम सुनते हैं कि आप कहते हैं, अमरीका पहले भी खोजा जा चुका है। तो क्या आप नहीं मानते कि कोलंबस ने पहली खोज की? और अगर कोलंबस ने पहली खोज नहीं की तो अमरीका बार-बार क्यों खो गया?
तो आस्कर वाइल्ड ने मजाक में कहा कि कोलंबस ने पुनः खोज की है, ही रि-डिसकवर्ड अमेरिका। इट वाज़ डिसकवर्ड सो मेनी टाइम्स, बट एवरी टाइम हश्ड-अप। हर बार दबा कर इसको चुप रखना पड़ा, क्योंकि यह उपद्रव, इसको बार-बार हश्ड-अप!
महाभारत अमरीका की चर्चा करता है। अर्जुन की एक पत्नी मेक्सिको की लड़की है। मेक्सिको में जो मंदिर हैं वे हिंदू मंदिर हैं, जिन पर गणेश की मूर्ति तक खुदी हुई है।
बहुत बार सत्य खोज लिए जाते हैं, खो जाते हैं। बहुत बार हमें सत्य पकड़ में आ जाता है, फिर खो जाता है। ज्योतिष उन बड़े से बड़े सत्यों में से एक है जो पूरा का पूरा खयाल में आ चुका और खो गया। उसे फिर से खयाल में लाने के लिए बड़ी कठिनाई है। इसलिए मैं बहुत सी दिशाओं से आपसे बात कर रहा हूं। क्योंकि ज्योतिष पर सीधी बात करने का अर्थ होता है कि वह जो सड़क पर ज्योतिषी बैठा है, शायद मैं उसके संबंध में कुछ कह रहा हूं। जिसको आप चार आने देकर और अपना भविष्य-फल निकलवा आते हैं, शायद उसके संबंध में या उसके समर्थन में कुछ कह रहा हूं।
नहीं, ज्योतिष के नाम पर सौ में से निन्यानबे धोखाधड़ी है। और वह जो सौवां आदमी है, निन्यानबे को छोड़ कर उसे समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही। क्योंकि वह जानता है कि ज्योतिष बहुत बड़ी घटना है। इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझक कर ही वहां पैर रख सकता है। जब मैं ज्योतिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो मेरा प्रयोजन है कि मैं उस पूरे-पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूं उस महल के। तो फिर आप भीतर बहुत आश्वस्त होकर प्रवेश कर सकें। और मैं जब ज्योतिष की बात कर रहा हूं तो ज्योतिषी की बात नहीं कर रहा हूं। उतनी छोटी बात नहीं है। पर आदमी की उत्सुकता उसी में है कि उसे पता चल जाए कि उसकी लड़की की शादी इस साल होगी कि नहीं होगी।
इस संबंध में यह भी आपको कह दूं कि ज्योतिष के तीन हिस्से हैं।
एक--जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है--नॉन एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं। और उन दोनों के बीच में एक परिधि है--सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से कर लें। एसेंशियल--जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य, जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की, उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा हिस्सा है--सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य। अगर जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा, तो जो होना है वही होगा। ज्ञान होगा, तो आल्टरनेटिव्स हैं, विकल्प हैं, बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है--नॉन एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है।
लेकिन हम जिस ज्योतिषी की बात समझते हैं, वह नॉन एसेंशियल का ही मामला है। एक आदमी कहता है, मेरी नौकरी लग जाएगी या नहीं लग जाएगी? चांदत्तारों के प्रभाव से आपकी नौकरी के लगने, न लगने का कोई भी गहरा संबंध नहीं है। एक आदमी पूछता है, मेरी शादी हो जाएगी या नहीं हो जाएगी? शादी के बिना भी समाज हो सकता है। एक आदमी पूछता है कि मैं गरीब रहूंगा कि अमीर रहूंगा? एक समाज कम्युनिस्ट हो सकता है, कोई गरीब और अमीर नहीं होगा। ये नॉन एसेंशियल हिस्से हैं जो हम पूछते हैं। एक आदमी पूछता है कि अस्सी साल में मैं सड़क पर से गुजर रहा था और एक संतरे के छिलके पर पैर पड़ कर गिर पड़ा, तो मेरे चांदत्तारों का इसमें कोई हाथ है या नहीं है? अब कोई चांदत्तारे से तय नहीं किया जा सकता कि फलां-फलां नाम के संतरे से और फलां-फलां सड़क पर आपका पैर फिसलेगा। यह निपट गंवारी है।
लेकिन हमारी उत्सुकता इसमें है कि आज हम निकलेंगे सड़क पर से तो कोई छिलके पर पैर पड़ कर फिसल तो नहीं जाएगा। यह नॉन एसेंशियल है। यह हजारों कारणों पर निर्भर है, लेकिन इसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। इसका बीइंग से, आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह घटनाओं की सतह है। ज्योतिष से इसका कोई लेना-देना नहीं है। और चूंकि ज्योतिषी इसी तरह की बात-चीत में लगे रहते हैं इसलिए ज्योतिष का भवन गिर गया। ज्योतिष के भवन के गिर जाने का कारण यह हुआ कि ये बातें बेवकूफी की हैं। कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राजी नहीं हो सकता कि मैं जिस दिन पैदा हुआ उस दिन लिखा था कि मरीन ड्राइव पर फलां-फलां दिन एक छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा और मैं फिसल जाऊंगा। न तो मेरे फिसलने का चांदत्तारों से कोई प्रयोजन है, न उस छिलके का कोई प्रयोजन है। इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योतिष बदनाम हुआ। और हम सबकी उत्सुकता यही है कि ऐसा पता चल जाए। इससे कोई संबंध नहीं है।
सेमी एसेंशियल कुछ बातें हैं। जैसे जन्म-मृत्यु सेमी एसेंशियल हैं। अगर आप इसके बाबत पूरा जान लें तो इसमें फर्क हो सकता है; और न जानें तो फर्क नहीं होगा। चिकित्सा की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी तो हम आदमी की उम्र को लंबा कर लेंगे--कर रहे हैं। अगर हमारी एटम बम की खोजबीन और बढ़ती चली गई तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार डालेंगे--मारा है। यह सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जगत है। जहां कुछ चीजें हो सकती हैं, नहीं भी हो सकती हैं। अगर जान लेंगे तो अच्छा है; क्योंकि विकल्प चुने जा सकते हैं। इसके बाद एसेंशियल का, अनिवार्य का जगत है। वहां कोई बदलाहट नहीं होती। लेकिन हमारी उत्सुकता पहले तो नॉन एसेंशियल में रहती है। कभी शायद किसी की सेमी एसेंशियल तक जाती है। वह जो एसेंशियल है, अनिवार्य है, अपरिहार्य है, जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं, उस केंद्र तक हमारी पकड़ नहीं जाती, न हमारी इच्छा जाती है।
महावीर एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और महावीर का एक शिष्य गोशालक उनके साथ है, जो बाद में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते हैं। गोशालक महावीर से कहता है कि सुनिए, यह पौधा लगा हुआ है। क्या सोचते हैं आप, यह फूल तक पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा? इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे? यह पौधा बचेगा या नहीं बचेगा? इसका भविष्य है या नहीं?
महावीर आंख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते हैं। गोशालक पूछता है कि कहिए! आंख बंद करने से क्या होगा? टालिए मत।
उसे पता भी नहीं कि महावीर आंख बंद करके क्यों खड़े हो गए हैं। वे एसेंशियल की खोज कर रहे हैं। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है, इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा।
आंख खोल कर महावीर कहते हैं कि यह पौधा फूल तक पहुंचेगा। गोशालक उनके सामने ही पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है, और खिलखिला कर हंसता है, क्योंकि इससे ज्यादा और अतक्र्य प्रमाण क्या होगा? महावीर के लिए कुछ कहने की अब और जरूरत क्या है? उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, और उसने कहा कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुस्कुराते हैं। और दोनों अपने रास्ते चले आते हैं।
सात दिन बाद वे वापस उसी रास्ते पर लौट रहे हैं। जैसे ही महावीर और वे दोनों अपने आश्रम में पहुंचे जहां उन्हें ठहर जाना है, बड़ी भयंकर वर्षा हुई। सात दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे हैं। जब लौटते हैं तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गए हैं जहां वे सात दिन पहले आंख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई, उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गईं, वह पौधा खड़ा हो गया।
महावीर फिर आंख बंद करके उसके पास खड़े हो गए, गोशालक बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आंख खोली। गोशालक ने पूछा कि हैरान हूं! आश्चर्य! इस पौधे को हम उखाड़ कर फेंक गए थे, यह तो फिर खड़ा हो गया है! महावीर ने कहा, यह फूल तक पहुंचेगा। और इसीलिए मैं आंख बंद करके खड़े होकर इसे देखा! इसकी आंतरिक पोटेंशिएलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या है? इसकी भीतर की स्थिति क्या है? तुम इसे बाहर से फेंक दोगे उठा कर तो भी यह अपने पैर जमा कर खड़ा हो सकेगा? यह कहीं आत्मघाती तो नहीं है, सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में, कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है! अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा। यह जीने को तत्पर है? अगर यह जीने को तत्पर है तो...मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंक दोगे।
गोशालक ने कहा, आप क्या कहते हैं?
महावीर ने कहा कि जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी पास खड़े थे और तुम भी दिखाई पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है? इसके पास आत्म-बल कितना है? यह कहीं मरने को तो उत्सुक नहीं है कि कोई भी बहाना लेकर मर जाए! तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है। और अन्यथा तुम्हारा उखाड़ कर फेंका गया पौधा पुनः जड़ें पकड़ सकता है।
गोशालक की दुबारा उस पौधे को उखाड़ कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी; डरा। पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था, इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े। गोशालक रास्ते में पूछने लगा, आप हंसते क्यों हैं? महावीर ने कहा कि मैं सोचता था कि देखें, तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है! अब तुम दुबारा इसे उखाड़ कर फेंकते हो या नहीं? गोशालक ने पूछा कि आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़ कर फेंकूंगा या नहीं! तो महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। तुम उखाड़ कर फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था, उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे। वह अनिवार्य था; वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो--तुम पर निर्भर है। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो, हार गए हो।
महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण यह पौधा भी था--महावीर को छोड़ कर चले जाने में।
ज्योतिष का--जिस ज्योतिष की मैं बात कर रहा हूं--उसका संबंध अनिवार्य से, एसेंशियल से, फाउंडेशनल से है। आपकी उत्सुकता ज्यादा से ज्यादा सेमी एसेंशियल तक जाती है। पता लगाना चाहते हैं कि कितने दिन जीऊंगा? मर तो नहीं जाऊंगा? जीकर क्या करूंगा, जी ही लूंगा तो क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता ही नहीं पहुंचती। मरूंगा तो मरते में क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता नहीं पहुंचती। घटनाओं तक पहुंचती है, आत्माओं तक नहीं पहुंचती। जब मैं जी रहा हूं, तो यह तो घटना है सिर्फ। जीकर मैं क्या कर रहा हूं, जीकर मैं क्या हूं, वह मेरी आत्मा है! जब मैं मरूंगा, वह तो घटना होगी। लेकिन मरते क्षण में मैं क्या होऊंगा, क्या करूंगा, वह मेरी आत्मा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सब की घटना एक सी घटेगी। लेकिन मरने के संबंध में, मरने के क्षण में हमारी स्थिति सब की भिन्न होगी। कोई मुस्कुराते हुए मर सकता है!
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है जब वह मरने के करीब है। उससे कोई पूछ रहा है कि आपका क्या खयाल है मुल्ला, लोग जब पैदा होते हैं तो कहां से आते हैं? जब मरते हैं तो कहां जाते हैं? मुल्ला ने कहा, जहां तक अनुभव की बात है, मैंने लोगों को पैदा होते वक्त भी रोते ही पैदा होते देखा और मरते वक्त भी रोते ही जाते देखा है। अच्छी जगह से न आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। इनको देख कर जो अंदाज लगता है, न अच्छी जगह से आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। आते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं, जाते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं।
लेकिन नसरुद्दीन जैसा आदमी हंसता हुआ मर सकता है। मौत तो घटना है, लेकिन हंसते हुए मरना आत्मा है। तो आप कभी ज्योतिषी से पूछे कि मैं हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए? नहीं पूछा होगा। पूरी पृथ्वी पर एक आदमी ने नहीं पूछा ज्योतिषी से जाकर कि मैं मरते वक्त हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा? यह पूछने जैसी बात है, लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से जुड़ी हुई बात है।
आप पूछते हैं, कब मरूंगा? जैसे मरना अपने आप में मूल्यवान है बहुत! कब तक जीऊंगा? जैसे बस जी लेना काफी है! किसलिए जीऊंगा, क्यों जीऊंगा, जीकर क्या करूंगा, जीकर क्या हो जाऊंगा, कोई पूछने नहीं जाता! इसलिए महल गिर गया। क्योंकि वह महल गिर जाएगा जिसके आधार नॉन एसेंशियल पर रखे हों। गैर-जरूरी चीजों पर जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हों वह कैसे टिकेगा! आधारशिलाएं चाहिए।
मैं जिस ज्योतिष की बात कर रहा हूं, और आप जिसे ज्योतिष समझते रहे हैं, उससे गहरी है, उससे भिन्न है, उससे आयाम और है। मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य है। और वह अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त और लयबद्ध है, अलग-अलग नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं हैं।
जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़ कर पृथ्वी पर सिर टेक दिया। कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्कार करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। बुद्ध को पृथ्वी पर हाथ टेके सिर रखे देख कर वे चकित हुए। उन्होंने पूछा कि तुम और किसको नमस्कार कर रहे हो? क्योंकि हम तो तुम्हें नमस्कार करने स्वर्ग से आते हैं। और हम तो नहीं जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्कार करे ऐसा कोई है। बुद्धत्व तो आखिरी बात है।
तो बुद्ध ने आंखें खोलीं और बुद्ध ने कहा, जो भी घटित हुआ है उसमें मैं अकेला नहीं हूं, सारा विश्व है। तो इस सबको धन्यवाद देने के लिए सिर टेक दिया है।
यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से बंधी हुई बात है। सारा जगत...।
इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जब भी तुम्हें कुछ भी भीतरी आनंद मिले, तत्क्षण अनुगृहीत हो जाना समस्त जगत के। क्योंकि तुम अकेले नहीं हो। अगर सूरज न निकलता, अगर चांद न निकलता, अगर एक रत्ती भर भी घटना और घटी होती तो तुम्हें यह नहीं होने वाला था जो हुआ है। माना कि तुम्हें हुआ है, लेकिन सबका हाथ है। सारा जगत उसमें इकट्ठा है।
एक कास्मिक, जागतिक अंतर-संबंध का नाम ज्योतिष है।
तो बुद्ध ऐसा नहीं कहेंगे कि मुझे हुआ है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि जगत को मेरे मध्य हुआ है। यह जो घटना घटी है एनलाइटेनमेंट की, यह जो प्रकाश का आविर्भाव हुआ है, यह जगत ने मेरे बहाने जाना है। मैं सिर्फ एक बहाना हूं, एक क्रास रोड, जहां सारे जगत के रास्ते आकर मिल गए हैं।
कभी आपने खयाल किया है कि चौराहा बड़ा भारी होता है। लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता, वे जो चार रास्ते आकर मिले होते हैं उन चारों को हटा लें तो चौराहा विदा हो जाता है। हम सब क्रिसक्रास प्वाइंट्स हैं, जहां जगत की अनंत शक्तियां आकर एक बिंदु को काटती हैं; वहां व्यक्ति निर्मित हो जाता है, इंडिविजुअल बन जाता है।
तो वह जो सारभूत ज्योतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं हैं। एक, उस एक ब्रह्म के साथ हैं, उस एक ब्रह्मांड के साथ हैं। और प्रत्येक घटना भागीदार है।
तो बुद्ध ने कहा है कि मुझसे पहले जो बुद्ध हुए उनको नमस्कार करता हूं, और मेरे बाद जो बुद्ध होंगे उनको नमस्कार करता हूं।
किसी ने पूछा कि आप उनको नमस्कार करें जो आपके पहले हुए, समझ में आता है। क्योंकि हो सकता है, उनसे कोई जाना-अनजाना ऋण हो। क्योंकि जो आपके पहले जान चुके हैं उनके ज्ञान ने आपको साथ दिया हो। लेकिन जो अभी हुए ही नहीं, उनसे आपको क्या लेना-देना है? उनसे आपको कौन सी सहायता मिली है?
तो बुद्ध ने कहा, जो हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है, जो अभी नहीं हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्य एक हो गए हैं। वहां जो जा चुका है वह उससे मिल रहा है जो अभी आने को है। वहां जो जा चुका उससे मिलन हो रहा है उसका जो अभी आने को है। वहां सूर्योदय और सूर्यास्त एक ही बिंदु पर खड़े हैं। तो मैं उन्हें भी नमस्कार करता हूं जो होंगे; उनका भी मुझ पर ऋण है। क्योंकि अगर वे भविष्य में न हों तो मैं आज न हो सकूंगा।
इसको समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी की बात है। कल जो हुआ है अगर उसमें से कुछ भी खिसक जाए तो मैं न हो सकूंगा, क्योंकि मैं एक शृंखला में बंधा हूं। यह समझ में आता है। अगर मेरे पिता न हों जगत में तो मैं न हो सकूंगा। यह समझ में आता है। क्योंकि एक कड़ी अगर विदा हो जाएगी तो मैं नहीं हो सकूंगा। अगर मेरे पिता के पिता न हों तो मैं न हो सकूंगा, क्योंकि कड़ी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मेरा भविष्य अगर उसमें कोई कड़ी न हो तो मैं न हो सकूंगा, समझना बहुत मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि उससे क्या लेना-देना, मैं तो हो ही गया हूं!
लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर भविष्य में भी जो होने वाला है, वह न हो, तो मैं न हो सकूंगा। क्योंकि भविष्य और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं। कहीं भी कोई बदलाहट होगी तो मैं वैसा ही नहीं हो सकूंगा जैसा हूं। कल ने भी मुझे बनाया, आने वाला कल भी मुझे बनाता है। यही ज्योतिष है! बीता कल ही नहीं, आने वाला कल भी; जा चुका ही नहीं, जो आ रहा है वह भी; जो सूरज पृथ्वी पर उगे वे ही नहीं, जो उगेंगे वे भी, वे भी भागीदार हैं। वे भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे हैं। क्योंकि यह जो वर्तमान का क्षण है यह हो ही न सकेगा अगर भविष्य का क्षण इसके आगे न खड़ा हो! उसके सहारे ही यह हो पाता है।
हम सब के हाथ भविष्य के कंधे पर रखे हुए हैं। हम सब के पैर अतीत के कंधों पर पड़े हुए हैं। हम सब के हाथ भविष्य के कंधों पर रखे हुए हैं। नीचे तो हमें दिखाई पड़ता है कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है वह न हो तो मैं गिर जाऊंगा। लेकिन भविष्य में मेरे जो फैले हाथ हैं, वे जो कंधों को पकड़े हुए हैं, अगर वे भी न हों तो भी मैं गिर जाऊंगा।
जब कोई व्यक्ति अपने को इतनी आंतरिक एकता में अतीत और भविष्य के बीच जुड़ा हुआ पाता है तब वह ज्योतिष को समझ पाता है। तब ज्योतिष धर्म बन जाता है, तब ज्योतिष अध्यात्म हो जाता है। और नहीं तो, वह जो नॉन एसेंशियल है, गैर-जरूरी है, उससे जुड़ कर ज्योतिष सड़क की मदारीगिरी हो जाता है, उसका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता। श्रेष्ठतम विज्ञान भी जमीन पर पड़ कर धूल की कीमत के हो जाते हैं। हम उनका क्या उपयोग करते हैं इस पर सारी बात निर्भर है। इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्का दे रहा हूं कि आपको यह खयाल में आ सके कि सब संयुक्त है--संयुक्तता, इस जगत का एक परिवार होना या एक आर्गेनिक बॉडी होना, एक शरीर की तरह होना।
मैं सांस लेता हूं तो पूरा शरीर प्रभावित होता है। सूरज सांस लेता है तो पृथ्वी प्रभावित होती है। और दूर के महासूर्य हैं, वे भी कुछ करते हैं तो पृथ्वी प्रभावित होती है। और पृथ्वी प्रभावित होती है तो हम प्रभावित होते हैं। सब चीज, छोटा सा रोआं तक महान सूर्यों के साथ जुड़ कर कंपता है, कंपित होता है। यह खयाल में आ जाए तो हम सारभूत ज्योतिष में प्रवेश कर सकें। और असारभूत ज्योतिष की जो व्यर्थताएं हैं उनसे भी बच सकें।
क्षुद्रतम बातें हम ज्योतिष से जोड़ कर बैठ गए हैं। अति क्षुद्र! जिनका कहीं भी कोई मूल्य नहीं है। और उनको जोड़ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है। जैसे हमने जोड़ रखा है कि एक आदमी गरीब पैदा होगा या एक आदमी अमीर पैदा होगा तो इसका संबंध ज्योतिष से होगा। नहीं, गैर-जरूरी बात है। अगर आप नहीं जानते हैं तो ज्योतिष से संबंध जुड़ा रहेगा; अगर आप जान लेते हैं तो आपके हाथ में आ जाएगा।
एक बहुत मीठी कहानी आपको कहूं तो खयाल में आए। जिंदगी ऐसा ही बैलेंस है, ऐसा ही संतुलन है। मोहम्मद का एक शिष्य है, अली। और अली मोहम्मद से पूछता है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्य स्वतंत्र है अपने कृत्य में या परतंत्र! बंधा है कि मुक्त! मैं जो करना चाहता हूं वह कर सकता हूं या नहीं कर सकता हूं!
सदा से आदमी ने यह पूछा है। क्योंकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ, तो फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, ईमानदार बनो, नासमझी है! एक आदमी अगर चोर होने को ही बंधा है, तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो, नासमझी है! या फिर यह हो सकता है कि एक आदमी के भाग्य में बदा है कि वह यही समझाता रहे कि चोरी न करो--जानते हुए कि चोर चोरी करेगा, बेईमान बेईमानी करेगा, असाधु असाधु होगा, हत्या करने वाला हत्या करेगा, लेकिन अपने भाग्य में यह बदा है कि अपन लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो!
एब्सर्ड है! अगर सब सुनिश्चित है तो समस्त शिक्षाएं बेकार हैं; सब प्रोफेट और सब पैगंबर और सब तीर्थंकर व्यर्थ हैं। महावीर से भी लोग पूछते हैं, बुद्ध से भी लोग पूछते हैं कि अगर होना है, वही होना है, तो आप समझा क्यों रहे हैं? किसलिए समझा रहे हैं?
मोहम्मद से भी अली पूछता है कि आप क्या कहते हैं?
अगर महावीर से पूछा होता अली ने तो महावीर ने जटिल उत्तर दिया होता। अगर बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही होती। लेकिन मोहम्मद ने वैसा उत्तर दिया जो अली की समझ में आ सकता था। कई बार मोहम्मद के उत्तर बहुत सीधे और साफ हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े-लिखे हैं, ग्रामीण हैं, उनके उत्तर सीधे और साफ होते हैं। जैसे कबीर के, या नानक के, या मोहम्मद के, या जीसस के। बुद्ध और महावीर के और कृष्ण के उत्तर जटिल हैं। वह संस्कृति का मक्खन है। जीसस की बात ऐसी है जैसे किसी ने लट्ठ सिर पर मार दिया हो। कबीर तो कहते ही हैं: कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए बाजार में खड़े हैं! कोई आए हम उसका सिर खोल दें!
मोहम्मद ने कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं कही। मोहम्मद ने कहा, अली, एक पैर उठा कर खड़ा हो जा! अली ने कहा कि हम पूछते हैं कि कर्म करने में आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र! मोहम्मद ने कहा, तू पहले एक पैर उठा! अली बेचारा एक पैर--बायां पैर--उठा कर खड़ा हो गया। मोहम्मद ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले। अली ने कहा, आप क्या बातें करते हैं! तो मोहम्मद ने कहा कि अगर तू चाहता पहले तो दायां भी उठा सकता था। अब नहीं उठा सकता। तो मोहम्मद ने कहा कि एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र है। लेकिन एक पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता है।
वह जो नॉन एसेंशियल हिस्सा है हमारी जिंदगी का, जो गैर-जरूरी हिस्सा है, उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने को स्वतंत्र हैं। लेकिन ध्यान रखना, उसमें उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्से में बंधन बन जाते हैं। वह जो बहुत जरूरी है वहां भी फंसाव पैदा हो जाता है। गैर-जरूरी बातों में पैर उठाते हैं और जरूरी बातों में फंस जाते हैं।
मोहम्मद ने कहा कि तू उठा सकता था पहला पैर भी, दायां भी उठा सकता था, कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसलिए अब दायां उठाने में असमर्थता हो गई। आदमी की सीमाएं हैं। सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता सीमाओं के बाहर नहीं है।
तो बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिंतन का कि अगर आदमी पूरी तरह परतंत्र है, जैसा ज्योतिषी साधारणतः कहते हुए मालूम पड़ते हैं। साधारण ज्योतिषी कहते हुए मालूम पड़ते हैं कि सब सुनिश्चित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा। तो फिर सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी, बुद्धिवादी कहते हैं कि सब स्वच्छंद है, कुछ बंधा हुआ नहीं है, कुछ होने का निश्चित नहीं है, सब अनिश्चित है। तो जिंदगी एक केआस और एक अराजकता और एक स्वच्छंदता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं, हत्या करूं और परमात्मा मिल जाए। क्योंकि जब कुछ भी बंधा हुआ नहीं है और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और जब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है...।
मुल्ला का फिर मुझे खयाल आता है। मुल्ला नसरुद्दीन एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है। और एक आदमी मस्जिद के ऊपर से गिर पड़ा। नमाज या अजान पढ़ने चढ़ा था मीनार पर, ऊपर से गिर पड़ा। मुल्ला के कंधे पर गिरा। मुल्ला की कमर टूट गई। अस्पताल में मुल्ला भर्ती किए गए, उनके शिष्य उनको मिलने गए। और शिष्यों ने कहा, मुल्ला, इससे क्या मतलब निकलता है? हाऊ डू यू इंटरप्रीट इट? इस घटना की व्याख्या क्या है? क्योंकि मुल्ला हर घटना से व्याख्या निकालता था।
मुल्ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होता है कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी सैद्धांतिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई, कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है--वह इसके ऊपर सवार हो गया था ऊपर से--हम मर गए! न हम अजान पढ़ने चढ़े, न हम मीनार पर चढ़े। हम अपने घर लौट रहे थे, हमारा कोई संबंध ही न था। इसलिए, मुल्ला ने कहा, आज से सब सिद्धांत की बातचीत बंद! कुछ भी हो सकता है! कुछ भी हो सकता है, कोई कानून नहीं है, अराजकता है। नाराज था। स्वाभाविक था, उसकी कमर टूट गई थी।
दो विकल्प सीधे रहे हैं। एक विकल्प तो यह है कि ज्योतिषी साधारणतः जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्योतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्योतिषी हो और चाहे मोरारजी देसाई का ज्योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क छाप ही है ज्योतिषी, जिससे कोई नॉन एसेंशियल पूछने जाता है कि इलेक्शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे? जैसे कि आपके इलेक्शन से चांदत्तारों का कोई लेना-देना है। वह कहता है, सब बंधा हुआ है; कुछ इंच भर यहां-वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है।
और दूसरी तरफ तर्कवादी है, बुद्धिवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है, सांयोगिक है, चांस है, कोइंसीडेंस है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां नियम है। क्योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरह आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी धर्म और ईश्वर को और आत्मा को तर्क से इनकार तो कर लेता है, लेकिन कभी महावीर की प्रसन्नता को उपलब्ध नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते हैं जिससे उनकी प्रसन्नता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते हैं जिससे उनकी समाधि निकलती है। और कृष्ण कुछ करते हैं जिससे उनकी बांसुरी के स्वर अलग हैं।
स्थिति तीसरी है। और तीसरी स्थिति यह है कि जो बिलकुल सारभूत है, जो अंतरतम है, वह बिलकुल सुनिश्चित है। जितना हम अपने केंद्र की तरफ आते हैं उतना निश्चय के करीब आते हैं। जितना हम अपनी परिधि की तरफ, सरकमफेरेंस की तरफ जाते हैं, उतना संयोग के करीब जाते हैं। जितना हम बाहर की घटना की बात कर रहे हैं उतनी सांयोगिक बात है। जितनी हम भीतर की बात कर रहे हैं उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्चित बात हो जाती है। दोनों के बीच में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते हैं। जहां जानने वाला आदमी विकल्प चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्य है। जो अंधेरा, जो संयोग उसको पकड़ा देता है।
तीन बातें हुईं। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्चित है। उसे जानना सारभूत ज्योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है जहां सब अनिश्चित है। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र है जो दोनों के बीच में है। उसे जान कर आदमी, जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है, जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर और परिधि और केंद्र के मध्य में आदमी इस भांति जीये कि केंद्र पर पहुंच पाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जीये कि केंद्र पर कभी न पहुंच पाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।
जैसे एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी, ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा, दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुश्किल हो जाएगा। करने के बाद बचना मुश्किल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्यक्तित्व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित्त डोल रहा है। अगर वह न कर दे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है।
तो उस ज्योतिष की तरफ, जो हमारे जीवन का सारभूत है, कुछ बातें मैंने कही हैं। आज मैंने एक बात आपसे कही और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ हैं। सूर्य से जन्मती है पृथ्वी, पृथ्वी से जन्मते हैं हम। हम अलग नहीं हैं, हम जुड़े हैं। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्ते हैं। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह हमारे पत्तों के रोएं-रोएं, रेशे-रेशे तक फैल जाता है और कंपित कर जाता है। यदि यह खयाल में हो तो हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्ध हो सकते हैं। तब हमें स्वयं की अस्मिता और अहंकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है।
और ज्योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्योतिष गलत है तो फिर अहंकार के अतिरिक्त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्योतिष सही है तो जगत सही है और मैं गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं, एक हिस्सा ही हूं; और कितना नाचीज टुकड़ा, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती। अगर ज्योतिष सही है तो मैं नहीं हूं; शक्तियों का एक प्रवाह है, उसी में एक छोटी लहर मैं हूं। किसी बड़ी लहर पर सवार कभी-कभी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं भी हूं। वह बड़ी लहर का खयाल नहीं रह जाता, और बड़ी लहर भी किसी सागर पर सवार है उसका तो बिलकुल खयाल नहीं रह जाता।
नीचे से सागर हाथ अलग कर लेता है, बड़ी लहर बिखरने लगती है; बड़ी लहर बिखरती है, मैं खो जाता हूं। अकारण दुख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं, क्योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि हूं। अगर उसी वक्त देख लेता कि मैं नहीं हूं, बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। सागर की मर्जी उठता हूं, सागर की मर्जी खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव-दशा बन जाती कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्सा हूं, तो कोई दुख न था। हां, वह तथाकथित सुख भी फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते हैं। मैंने जीता, मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ, मैं टूट गया, मैं नष्ट हो गया, हार गया, पराजित हुआ, वह दुख भी नहीं रह जाएगा। और जब ये दोनों सुख और दुख नहीं रह जाते हैं तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते हैं जहां आनंद है।
ज्योतिष आनंद का द्वार बन जाता है, अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है, हमारी ईगो को हटा देता है। लेकिन जब हम बाजार में सड़क पर ज्योतिषी के पास जाते हैं तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछने, कि घाटा तो नहीं लगेगा? यह लाटरी मिल जाएगी? नहीं मिलेगी? यह धंधा हाथ में लेते हैं, सफलता निश्चित है? अहंकार के लिए हम पूछने जाते हैं। और मजा यह है कि ज्योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है। ज्योतिष का अर्थ ही यह है कि आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो, ब्रह्मांड है। विराट शक्तियों का प्रभाव है, आप कुछ भी नहीं हो।
इस ज्योतिष की तरफ खयाल आए, और वह तभी आ सकता है जब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति यह सारा का सारा संयुक्त और जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए हैं तो फिर हमको पता चलेगा कि सूर्य और महासूर्यों से जुड़ा हुआ है।
कोई चार अरब सूर्य हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन सभी सूर्यों का जन्म किसी महासूर्य से हुआ है। अब तक हमें उसका कोई अंदाज नहीं वह कहां होगा। जैसे पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और साथ ही सूरज का चक्कर लगाती है, ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक-ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्या है जिसका सूरज चक्कर लगा रहा है। विराट चक्कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा का पूरा सौर परिवार भी किसी और महाबिंदु के चक्कर में संलग्न है।
मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि इस जगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही हैं। प्रत्येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वे दोनों मिल कर किसी और बड़े की परिक्रमा कर रहे हैं। फिर वे तीनों मिल कर और किसी की परिक्रमा कर रहे हैं। वह जो अल्टीमेट है जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे हैं, उसको ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है--उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है।
ध्यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्य और शांत है। वह धुरी, वह कील जिस पर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है, जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिकुड़ता है।
हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है, फिर बिखर जाती है; ऐसे ही यह पूरा जगत खिलता है, फैलता है, एक्सपैंड होता है, फिर प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। जैसे दिन होता है और रात होती है, ऐसे ही सारे जगत का दिन है और फिर सारे जगत की रात हो जाती है। जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्ष की एक लय है, नब्बे वर्ष की एक लय है। ऐसा हिंदू विचार का खयाल है कि अरबों-खरबों वर्ष की भी एक लय है। उस लय में जगत उठता है, जवान होता है। पृथ्वियां पैदा होती हैं, चांदत्तारे फैलते हैं, बस्तियां बसती हैं। लोग जन्मते हैं, करोड़ों-करोड़ों प्राणी पैदा होते हैं। और कोई एक अकेली पृथ्वी पर हो जाते हैं, ऐसा नहीं।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन होना चाहिए, कम से कम! यह मिनिमम है, इतना तो होगा ही, इससे ज्यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेली पृथ्वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार ग्रहों पर, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। अनंत फैलाव है। फिर सब सिकुड़ जाता है।
यह पृथ्वी सदा नहीं थी, यह सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था, सदा नहीं होऊंगा। वैसे ही यह पृथ्वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था, सदा नहीं होगा। ये चांदत्तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगे। इनके होने और न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी कहीं एक पहिए की किसी धुरी पर न होने जैसे कहीं हैं। और अगर हम सोचते हों कि हम अलग हैं तो हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे कोई आदमी ट्रेन में बैठा हो...।
मैंने सुना है कि एक आदमी एक हवाई जहाज में सवार हुआ। और जल्दी पहुंच जाए इसलिए तेजी से हवाई जहाज के भीतर चलने लगा--जल्दी पहुंच जाने के खयाल से! स्वाभाविक तर्क है कि अगर जल्दी चलिएगा तो जल्दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्या कर रहे हैं? उसने कहा कि मैं थोड़ा जल्दी में हूं।
जमीन पर उसका जो तर्क था--वह पहली दफे ही हवाई जहाज में सवार हुआ था--जमीन पर वह जानता था कि जल्दी चलिए तो जल्दी पहुंच जाते हैं। हवाई जहाज पर भी वह जल्दी चल रहा था, इसका बिना खयाल किए कि उसका चलना अब इररेलेवेंट है, अब असंगत है। अब हवाई जहाज चल ही रहा है। वह चल कर सिर्फ अपने को थका ले सकता है; जल्दी नहीं पहुंचेगा, यह हो सकता है कि पहुंचते-पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आंख बंद करके लेट जाना चाहिए।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं जो इस जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है, जल्दी नहीं है। मेरी जल्दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं इस विराट की लयबद्धता में एक बना रहूं, वही काफी है, वही आनंदपूर्ण है।
ज्योतिष के लिए मैं इसीलिए आपसे इतनी बातें कहा हूं। यह खयाल में आ जाए तो ज्योतिष आपके लिए अध्यात्म का द्वार सिद्ध हो सकता है।
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